- १५२ राणा से सन्धि होने के बाद बादशाह ने अपनी समस्त शक्ति दक्षिण- विजय पर लगादी । वह अन्त में स्वयं भारी सेना लेकर दक्षिण पर चढ़ चला, और चौबीस वर्ष तक मरहठों से टक्कर लेता रहा । उसे फिर दिल्ली देखनी नसीब न हुई । मरहठों ने समस्त दक्षिण पर अधिकार कर लिया । साथ ही मुग़लों के भी बहुत से प्रान्त जीत लिये । इससे इसका दिल डूब गया, और वह वहीं मृत्यु को प्राप्त हुआ। शाइस्ताखाँ ने इस समय बादशाह को बहुत सहायता दी थी। उसी की बदौलत वह उच्च-पद पर पहुँचा था। उसे खगुआ के युद्ध से प्रथम मागरे का सूबेदार नियत किया गया। फिर वह दक्षिण का सूबेदार बनाया गया। फिर मीरजुमला की मृत्यु के बाद उसे बंगाल का हाकिम बना दिया गया। अमीर-उमरा की पदवी उसे प्रदान की गई और अराकान के भया- नक डाकू राजा से निरन्तर लड़ने और उद्दण्ड पुर्तगीज लुटेरों से टक्कर लेने को छोड़ दिया गया। शाइस्ताखाँ ने बड़ी हिम्मत, मुस्तैदी और वीरता से इन डाकुओं को वश में किया, और बंगाल के निचले प्रदेशों को निष्कंटक कर दिया। बादशाह ने अपने बड़े पुत्र को तो ग्वालियर के किले में घुल-घुलकर मरने को डाल दिया था। एक बार छोटे बेटे मुअज्ज़क को भी शिकार के बहाने ऐसे खतरे में भेज दिया, जहां से वह बड़ी ही बहादुरी से जान बचा- कर आया । इस पर औरङ्गजेब ने उसे दक्षिण का सूबेदार बनाकर वहाँ भेज दिया। महावतखाँ, जो प्राचीन योद्धा था और जिसने शाहजहाँ पर बड़े-बड़े एहसान किये थे, काबुल से बुला लिया गया। उसने बहुत-सी क़ीमती भेंट शाहज़ादी रोशनआरा को तथा सोलह हज़ार अशफ़ियाँ और बहुत-से ईरानी ऊँट तथा घोड़े बादशाह को भेंट किये । इस पर बादशाह कुछ सन्तुष्ट हुआ, और उसे दक्षिण भेज दिया। इसके सिवा अमीरखाँ को काबुल, खली- लुल्लाह को लाहौर, मीरबाबा को इलाहाबाद, जुल्फिकारखाँ को खगुआ भेज दिया। फ़ाजिलखाँ, जिसकी योग्य सलाहों से बादशाह को बहुत लाभ हुआ था, प्रधान खानसामाँ बनाया गया। देहली की सूबेदारी दानिश- मन्दखाँ को दी गयी । दयानतखाँ को काश्मीर की सूबेदारी दी गई।
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