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मुहम्मद-रसूल अल्लाह

सन् ५७१ ईस्वी की गर्मी के दिनों में शहर बसरा में ऊँटों पर सवार एक क़ाफ़िला आया। वह मक्का से आया था और अरब के दक्खिन प्रदेश में पैदा हुई सूखी वस्तुओं से लदा हुआ था। इस क़ाफ़िले का सरदार अबूतालिब और उसका बारह वर्ष का भतीजा था। बसरे के नेस्टर धर्मावलम्बी मठ की ओर से उनका आतिथ्य किया गया।

मठ के संन्यासियों को जब मालूम हुआ कि उनका बारह वर्ष का बालक अतिथि अरब के प्रसिद्ध पवित्र मन्दिर काबा के रक्षक का भतीजा है, तो उन्होंने अपने धर्म की प्रशंसा और मूर्ति-पूजा की निन्दा उस बालक के हृदय में प्रवेश कराई। उन्हें यह भी ज्ञात हुआ कि बालक असाधारण बुद्धिमान और नवीन ज्ञान का उत्सुक है। खास कर धर्म सम्बन्धी विवाद में उस का मन बहुत लगता है।

इस बालक का नाम मुहम्मद था। मक्का में उस समय एक काला पत्थर पूजा जाता था, जो उल्कोद्भव था। यह काबा में रक्खा हुआ था और उसके साथ ३६० अन्य मूर्तियाँ थीं, जो वर्ष भर के दिनों की सूचक थीं। क्योंकि उस समय साल के दिन यों ही गिने जाते थे।

यह वह समय था, जबकि ईसाई धार्मिक समूह अपने पादरियों की

दुष्टता और ऐश्वर्य-तृष्णा के कारण अराजकता की दशा को पहुँच चुका था। पश्चिमी देशों के पोप लोग धन, विलास और शक्ति के ऐसे प्रलोभन देते थे कि बिशप लोगों के चुनाव में भयंकर बध करने पड़ते थे। पूर्वीय देशों में