१३५ चाहा, उन्हें मार डाला। इसके बाद दारा को बाँधकर उसने एक हाथी पर बैठाया, और एक बधिक को इसलिये पीछे बैठा दिया कि यदि वह अथवा उसका कोई और आदमी कुछ भी हाथ-पाँव हिलावे, तो बधिक उसी क्षण उसकी समाप्ति कर दे। इस प्रकार अप्रतिष्ठा के साथ उसने दारा को लाकर ठट्ठ में मीर बाबा के सुपुर्द कर दिया। मीर बाबा ने आज्ञा दी कि इसे लाहौर होते हुए देहली ले जाओ। "जब भाग्यहीन दारा देहली के निकट पहुँचा, तब औरङ्गजेब ने अपने दरबारियों से इस बात की राय ली कि ग्वालियर के दुर्ग में कैद करने से पहले उसे देहली में घुमाना चाहिए या नहीं? इस पर कुछ लोगों ने तो यह उत्तर दिया कि ऐसा करना उचित नहीं, क्योंकि प्रथम तो यह बात राज-कुटुम्ब की प्रतिष्ठा के विपरीत है, दूसरे इसमें बलवा हो जाने का डर है, और कुछ आश्चर्य नहीं कि लोग उसे छुड़ा लें। पर प्रायः लोगों की यह राय हुई कि उसे अवश्य एक बार नगर में घुमाया जाय-ताकि लोगों को भय हो, उन पर बादशाह का रोब छा जाय, तथा जिन लोगों को अभी तक उसके पकड़े जाने में सन्देह बना हुआ है, उनका सन्देह मिट जाय और उसके छिपे पक्षपातियों की आशायें भंग हो जायँ । अन्त में औरङ्गजेब ने भी इसी राय को उचित समझा और दारा को नगर में घुमाने की आज्ञा दी। अभागा दारा और उसका पुत्र सिफ़र शिकोह दोनों एक ही हाथी पर बैठाये गये और बधिक की जगह बहादुरखाँ को बैठाकर नगर-पर्यटन कराया गया। परन्तु वह सिंहल द्वीप का पेरू का हाथी नहीं था, जिस पर दारा बहुत बढ़िया सामग्रियों से सजकर बैठा करता था, और बहुमूल्य झूल तथा सैनिक आभूषणों से ढका रहता था ; यह एक बहुत सड़ियल और गन्दा जानवर था। स्वयं उसके गले में भी वह बड़े-बड़े मोतियों की माला, शरीर पर वह ज़रबफ्त का क़बा और सिर पर वह पगड़ी नहीं थी, जो भारतवर्ष के बादशाह और उनके कुमार पहना करते हैं। इन वस्तुओं के स्थान में पिता-पुत्र बहुत ही मोटे वस्त्र पहने थे। इसी दशा में दोनों शहर- भर के बाजारों में फिराये गये । उनकी दशा देखकर मुझे भय होता था कि कहीं खून-खराबी न हो जाय । आश्चर्य है कि ऐसे राजकुमार के साथ, जो लोगों का प्रिय था, ऐसा बर्ताव करने का दरबारियों को कैसे साहस 1
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