१३२ और अधिकांश को निर्दय कोलियों ने मार डाला । यदि ऐसी आपदाओं से भरी यात्रा में स्वयं दारा शिकोह मर जाता तो मैं उसे बड़ा ही भाग्यवान् समझता। पर सब प्रकार के कष्ट और विपत्ति सहता हुआ अन्त में वह कच्छ प्रान्त में पहुँच गया। “यहाँ के राजा ने, जैसा कि चाहिये, बड़ी उत्तम रीति से उसका स्वागत किया और अपने यहाँ उसे स्थान दिया । पश्चात् उसने दारा से कहा कि यदि आप अपनी कन्या का विवाह मेरे पुत्र से करदें तो मैं अपनी सब सेना आपकी सहायता के लिये उपस्थित कर दूं। परन्तु पीछे जिस प्रकार यशवन्तसिंह पर जयसिंह का जादू चल गया था, उसी प्रकार यहाँ भी हुआ। शीघ्र ही उसके भाव बदले हुए दिखाई दिये । जब कई बातों से दारा शिकोह ने देख लिया कि यह दुष्ट तो मेरे प्राण ही लेना चाहता है, तब वह तुरन्त वहाँ से ठट्ठ की ओर चल दिया। "जिस समय दारा ठट्ठ की आपदापूर्ण यात्रा में लगा हुआ था, उस समय बंगाल में लड़ाई पहले की तरह हो रही थी। दारा शिकोह ठट्ठ के निकट पहुँच चुका था, और केवल दो ही तीन दिन का मार्ग बाक़ी था। मुझको उन फ्रांसीसियों और कई दूसरे यूरोपियनों से जो उस दुर्ग की सेना में थे, मालूम हुआ कि यहाँ पहुँचकर दारा को यह समाचार मिला कि मीर बाबा ने, जो बहुत दिनों से दुर्ग को घेरे हुए था, भीतरवालों को यहाँ तक तंग कर दिया है कि आध सेर माँस या चावल २॥) रुपये का मिलता है और दूसरी वस्तुएँ भी बहुत महँगी हैं, तो भी बहादुर किलेदार अब तक उसी प्रकार साहस किये हुए है, और वह प्रायः दुर्ग के बाहर निकल- कर शत्रुओं पर आक्रमण करता है, और हर प्रकार की सचाई, वीरता और स्वामि-भक्ति से मीर बाबा के आक्रमणों को रोकता है। उसके इस प्रशंस- नीय कार्य के विषय में वे योरोपियन भी, जो उसकी सेवा में थे, कहते थे कि सब सच है। उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि जब उसको दारा के निकट आने का सम्वाद मिला, तब उसने और भी उत्साह दिखलाया और इस प्रकार सिपाहियों को अपने वश में कर लिया कि दुर्गवाले मीर बाबा का घिराव तोड़कर दारा को दुर्ग में जाने देने लिये वे अपने प्राण दे देने को तैयार हो गये।
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