हमें यह मानना होगा कि भारत में समय के साथ सुविचारों की उन्नति नहीं हुई। खासकर बारहवीं शताब्दी के बाद। एक बात हम यह देखते हैं कि लोगों में सदैव लोक प्रचलित आचारों पर चलने की प्रवृत्ति रही। धार्मिक सहनशीलता भी काफी रही। मुसलमानों को छोड़कर और किसी ने भारत में धार्मिक युद्ध नहीं किये। कानून बनाने का राजाओं ने कभी प्रयत्न नहीं किया। तपस्वी ब्राह्मणों के ग्रन्थ ही राजसभा में कानन की भाँति माने जाते रहे। पेशवाओं के राज्य काल तक ऐसा ही रहा। यह बात स्वीकार करनी होगी कि जितनी उन्नति हिन्दू राज्य ने शासन पद्धति, प्रजा अधिकार आदि के विचारों में की, उतनी तात्कालिक किसी साम्राज्य ने पृथ्वी भर में नहीं की। यदि सुअवसर प्राप्त होता तो अब उन्नत देशों की भाँति भारत भी बारहवीं शताब्दी के पीछे उन्नत होता, परन्तु हिन्दू-मुसलमानों को सामाजिक एवं धार्मिक भिन्नता और संघर्ष के कारण प्रजा और राजा में एकता का भाव मुसलमानी राज्यकाल में नहीं रह गया। मुसलमान अपने को सदा विजयी समझते रहे और पांचसौ वर्ष तक प्रजा के अधिकारों का समुचित विकास नहीं हो पाया। परन्तु यह बात केवल राजनैतिक अधिकारों एवं विचारों के सम्बन्ध में कही जाती है, अन्य विषयों में भारत के पृष्ठ बहुत उज्ज्वल हैं। हम कह सकते हैं कि बहुत सी बातों में भारत ने संसार की सभ्यता को वर्द्धमान किया है। कोमलता, दया, परदुःख कातरता जो भारत में देखी जाती रही, वह पृथ्वी के किसी अन्य देश में नहीं। शिल्प और स्थापत्य के उदाहरण भी साधारण नहीं हैं। दर्शन-साहित्य और अध्यात्म चर्चा में भारत संसार का गुरु रहा है।
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