११८ 1 मानता था, बल्कि हुक्म चलाता था। बादशाह हर तरह उससे लाचार हो गया था। विश्वासी सरदार सुलेमान शिकोह के साथ थे, दरबार में जो सर- दार थे, उनके ऊपर विश्वास नहीं किया जा सकता था। क्योंकि दारा ने बहुतों का अपमान किया था। बादशाह स्वयं इस युद्ध में सेनापति बनना चाहता था। यदि ऐसा होता तो युद्ध टल जाता, पर दारा को गर्व था कि विजय का सेहरा मैं अपने सिर बांधूगा। दारा को यह भी समझाया कि सुलेमान शिकोह के आने तक ठहरो जो तेजी से बढ़ा आ रहा है पर उसने न माना । वह जब कूच करके पिता से मिलने गया तो बादशाह ने कहा-तुमने अपनी मर्जी का काम किया, खुदा तुम्हें सुर्खरू बनाये । दारा चल दिया और आगरे से साठ मील दूर चम्बल नदी का घाट रोक पड़ाव डाल दिया। औरङ्गजेब ने भेदिये लगा रखे थे और उसे दारा की गतिविधि मालूम थी। इतने पर भी उसने अपने डेरे उस पार लगा दिये और जान- बूझ कर इतने पास लगाये कि जिन पर दारा की दृष्टि पड़ सके। इसके बाद उसने चम्पतराय से सन्धि कर वहाँ से बारह फांग की दूरी पर दुर्गम वन में होकर सेना इस पार उतार ली। जब वह चुपचाप जमना किनारे तक पहुँच गया तब दारा को इस बात का पता चला और उसने उसका पीछा किया। अब आगरा निकट आ गया था। औरङ्गजेब यहाँ सेना को विश्राम की आज्ञा देकर सामग्री और मोर्चेबन्दी की तैयारी करने लगा। उधर दारा ने सबसे आगे तोपें लगा कर ऐसी जकड़ दी कि शत्रु के सवार पंक्ति भंग न कर सके। उनके पीछे उसने ऊँटों पर छोटी तो सजाई। इसके पीछे पैदल सेना पंक्ति बाँध बन्दूक दाग़ने को तैयार होगई। शेष सेना सवारों की थी जिनमें राजपूतों पर तलवारें या बछियाँ थीं और मुग़लों पर तलवारें, तीर और धनुष । इस सेना के दाहिनी ओर खलीलु- ल्लाहखाँ था जिसके आधीन तीस हज़ार सवार थे। बाँई ओर रुस्तमखाँ दक्षिणी, राव छत्रसाल और सरदार रामसिंह थे। औरंगजेब की सेना की भी यही व्यवस्था थी। अन्तर यह था कि कुछ छोटी तोपें उसने दायें बायें भी छिपा दी थीं। यह युक्ति मीर जुमला ने बताई थी जो बहुत उपयुक्त निकली। -
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