पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/१२५

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११६ औरंगाबाद नहीं आ सकता। इसके अलावा आप विश्वास करें कि मैंने ठीक खबर पाई है कि बादशाह सलामत अभी जिन्दा हैं। फिर यह भी बात है कि जब तक मेरे बाल बच्चे दारा के क़ब्जे में हैं, मैं आपके साथ शरीक नहीं हो सकता। यह जवाब पाकर औरंगजेब ने अपने दूसरे पुत्र मुअज्जम को उसके निकट भेजा। जो समझा-बुझाकर उसे ले आया। वहां दोनों दोस्तों ने सलाह की और फ़र्जी तौर से मीर जुमला कैद होकर दौलताबाद के क़िले में रख दिया गया। उसने औरंगजेब को रुपया भी बहुत दिया जिससे उसने फौजें भर्ती कर डालीं। उसने दक्खिन के सब क़िलेदारों और फ़ौज- दारों को अपना साथ देने को तैयार कर लिया। नर्वदा पर एक क़िला था जहाँ होकर दक्खिन का रास्ता था। वहाँ के किलेदार मिर्जा अबदुल्ला को उसने कहला दिया कि यदि कोई क़ासिद इधर से गुजरे और उसके पास ऐसी चिट्ठियाँ हों जिनमें बादशाह के जिन्दा होने की बात हो तो वे चिट्ठियाँ जला दी जायँ और उस आदमी का सिर काट लिया जाय । इस प्रकार उसने दक्खिन में असली खबर पहुँचने न दी और सब सरदार अपनी- अपनी फ़ौज़ लेकर उसके साथ हो लिये। मुराद को वह बराबर चिकनी-चुपड़ी चिट्ठियाँ लिख रहा था। माँडो के जंगलों में दोनों सेनाएँ मिलीं। औरंगजेब हाथ बाँधे मुराद के सामने गया। उसे बादशाह कहा और बड़े-बड़े सब्ज़ बाग़ दिखाये। मुराद ने भी बड़े-बड़े वादे किये । अब दोनों लश्कर साथ-साथ चले। यह भयानक समाचार आगरे पहुँचा तो दरबार में हलचल मच गई। शाहजहाँ ने दोनों शाहजादों को वापस जाने को लिख भेजा। उत्तर में औरंगजेब ने लिखा- 'मुझे बन्दगाने वाला की सलामती की खबर पर यकीन नहीं आता। और बिलफ़र्ज अगर वे जिन्दा और सलामत हैं तो क़दमबोसी हासिल करने और इर्शाद अहकाम से सरफ़राज होने की मुझे बड़ी तमन्ना है।' लाचार बादशाह ने अपने सरदारों से सम्मति ली और क़ासिमखाँ तथा जसवन्तसिंह को एक टुकड़ी सेना देकर उन्हें रोकने को भेजा गया।