११५ सेनापति दिलेरखाँ के साथ शुजा पर एक भारी सेना लेकर भेजा, जिन्होंने उसे बंगाल की ओर खदेड़ दिया। अब बादशाह ने देहली कूच की तैयारी की। उसका इरादा देहली राजधानी ले आने का था। कई दिन तक सड़कें लश्करों से भरी चलती रहीं पर ज्योंही बादशाह चलने को हुआ कि खबर मिली कि औरंगजेब ने विद्रोह किया है । यह सुनकर बादशाह ने यात्रा रोक दी और औरंगजेब को लौट जाने का हुक्म भेजा । मगर उसने इसकी परवाह न की। रास्ते में उसे पता लगा कि मुरादबख्श भी सेना सजा चुका है, अतः उसने उसे पत्र लिखा। उसका आशय यह था- बहादुर भाई ! मैंने सुना है कि दारा ने जहर देकर हमारे पिता बुजुर्गवार को मरवा डाला है । मैं इस पत्र द्वारा आप पर प्रकट करना चाहता हूँ कि आप के सिवा कोई भी शाहजादा गद्दी का हक़दार नहीं। दारा काफिर है, शुजा अली का पेरौकार है, मेरी सल्तनत कुरान है और इरादा कर चुका हूँ कि जीवन के शेष दिन मक्के में व्यतीत करूंगा। मैंने इरादा किया है कि जी जान से कोशिश करके आपको तख्त पर बैठा दूंगा। मेरी सारी चतुराई, धन, फ़ौज आपकी है। मेरी यही अर्ज़ है कि जब आप बादशाह हो जायँ मेरे बाल बच्चों पर महरबानी की नज़र रखें । एक लाख रुपये मैं आपको बतोर नजराने के भेज रहा हूँ। आप फ़ौरन सूरत के किले पर कब्जा कर लीजिये, जहाँ बहुत सी दौलत सुरक्षित है। आपका प्यारा भाई-औरंगजेब । पत्र पाकर मुराद फूल कर कुप्पा होगया। उसने फ़ौरन फ़ौज भर्ती करना शुरू कर दिया और औरंगजेब को शीघ्र लश्कर समेत आ मिलने को लिख भेजा। उसने महाजनों को भी यह पत्रा दिखा कर बहुत सा रुपया कर्ज ले लिया। औरंगजेब ने अब अपने पुत्र सुल्तान मुहम्मद को मीर जुमला को लेने भेजा जो कल्याण के किले का मुहासरा किये पड़ा था और लिखा कि आपकी सम्मति की बड़ी आवश्यकता है। क्योंकि कई कठिन काम आ पड़े हैं । आप मुझे तुरन्त औरङ्गाबाद में आकर मिलें । उसने जवाब में लिखा- कल्याण का मुहासरा छोड़ और फ़ौज से अलहदा होकर मैं - -
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