४१४ भारत में अंगरेजी राज ईमानदारी का न था। इसका पहला परिचय निज़ाम और मगठी की लड़ाई के समय मिला । निजाम और भगठी सर जान शार आर का चौथ' के बारे में कुछ झगड़ा था। दिल्ली निज़ाम सम्राट की आज्ञानुसार निजाम मराठों को मालाना 'चौथ' दिया करता था। मगठे कहते थे कि निज़ाम की ओर हमारी रकम निकलती है। निज़ाम उन दिनों अंगरेज़ों और उनकी सबमीडीयरी सेना के बल भूला हुआ था। निजाम दरवार यह कहता था कि उलटा पेशवा दरवार के पास हमारे दो करोड़ साठ लाख रुपए ज्यादा चले गए हैं। पेशवा माधोराव नागयन का एक दृत गोविन्दराव काल हिसाब साफ़ करने के लिए निज़ाम के दरबार में पहुँचा । निज़ाम ने मराठा दूत के साथ बड़े निरादर का बर्ताव किया। मराठों और निज़ाम मे युद्ध अनिवार्य हो गया । माधोजी सीधिया की गद्दी पर इस समय उसका पौत्र दौलतराव मीधिया बैठा हुआ था । दौलतगव वीर और समझदार था। उसने मराठा सेना सहित निज़ाम पर चढ़ाई की। टीपू भी उस समय निजाम के खिलाफ था। निजाम के एक मात्र साथी सर जॉन शो ने ऐन मौके पर निजाम को मदद देने से इनकार कर दिया। यहाँ तक कि कम्पनी की जो सबसीडीयरी सेना निजाम के इलाके में निजाम के खर्च पर और निजाम की मदद के लिए कह कर रक्खी गई थी उसने भी इस समय निज़ाम की मदद करने से इनकार कर दिया । नतीजा यह हुआ कि १५ मार्च सन् १७६५. का निज़ाम ने कुर्दला की लड़ाई में मराठों से हार खाई और मराठो की सब शर्ते
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भारत में अंगरेज़ी राज