भारत में अंगरेजी राज सिराजुद्दौला ने एक बार कम्पनी को अलग टकसाल कायम करने से रोक दिया था। बाद में कुछ शर्तों कम्पनी की के साथ उसे इजाज़त दनी पड़ी, किन्तु इस टकसाल पर भी सिराजुद्दौला के समय मे कम्पनी की टकसाल दंगाल में कायम न हो सकी। इतिहास लेखक और्म लिखता है कि प्लासी के युद्ध के बाद कलकत्ते में कम्पनी की टकसाल कायम हुई और १६ अगस्त १७५७ को पहले पहल कम्पनी के नाम के रुपए ढाले गए। फिर भी तीन साल तक अंगरेजों को इस टकसाल से अधिक लाभ न हो सका, क्योंकि बंगाल भर में मुर्शिदाबाद के सरकारी रुपयों के सामने कम्पनी के रुपयों को, उनमें चांदी कम होने के कारण, बिना बट्टे कहीं कोई न लेता था। अब अंगरेजों को इस असुविधा के दूर करने का मौका मिला। २० अक्तवर को गद्दी पर बैठते ही मीर कासिम ने कम्पनी के नाम एक परवाना जारी किया, जिसमें उसने उन्हें अपनी कलकत्ते की टकसाल में प्रशतियाँ और रुपए ढालने की इजाजत दी, इस शर्त पर कि कम्पनी के सिक्के वज़न और धातु में मुर्शिदाबाद के सरकारी सिक्कों के बिलकुल बराबर हों। इसके साथ साथ उसने एक निहायत कड़ा हुकुम जारी कर दिया कि कोई सर्राफ या सौदागर कलकत्ते के सिक्कों को लेने से इनकार न करे और न उन पर किसी तरह का बट्टा माँगे।" besides to send down to Calcutta, to help out the Company in theil present occasions thers and at Madras "-Vansirtart and Callaud in their letter to the Select Committee a Fort Walram dated 21st October, 1760
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भारत में अंगरेज़ी राज