मीर जाफ़र १०७ था और मालूम होता है कि सिराजुद्दौला की मृत्यु के बाद सूबेदारी की बाजाब्ता सनद मीर जाफर को दिल्ली दरबार से श्रता हो गई। ___ सिराजुद्दौला का नाना अलीवर्दी खां इस बात को समझता था कि प्रजा के सुख और उनकी खुशहाली को बढ़ाना और विना मजहब इत्यादि का खयाल किए योग्य आदमियों को राज के उच्च से उच्च और जिम्मेदार श्रोहदों पर नियुक्त करना राजा का धर्म है। और इस धर्म के पालन करने से ही राज की जड़ें चिरस्थाई हो सकती हैं। इसलिए अपनी सूवेदारी में करीव करीब सब ऊँचे ओहदों पर उसने हिन्दुओं को नियुक्त कर रक्खा था। सिराजुद्दौला भी अपने थोड़े से शासनकाल में और ऐसे कठिन समय में, जबकि उसे रात दिन षड्यंत्रों और साजिशों का मुकाबला करना पड़ता था, अपने नाना की इस उदार नीति का ठीक ठीक पालन करता रहा। अलोवर्दी खों ओर सिराजुद्दौला दोनों अपनी हिन्दू और मुसलमान प्रजा को एक आँख से देखते थे और उनके साथ एक समान बर्ताव करते थे। किन्तु यह एक विचित्र वात है कि बंगाल के शासन में अंगरेजों का दखल शुरू होते ही मुसलमान सूवेदारों को यह नीति एकदम बदल गई। नवाब मीर जाफ़र श्राली खाँ ने मसनद पर बैठते ही हिन्दुओं को तमाम ऊँचे ऊँचे श्रोहदों से हटा कर उनकी जगह अपने सहधर्मी भरने शुरू कर दिए । यह नीति मीर जाफर और उसकी प्रजा दोनों के लिए अहितकर, किन्तु अंगरेजों के लिए हितकर थी, और इतिहास से जाहिर है कि मीर
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मीर जाफ़र