भारत में अंगरेजी राज को चालों को न समझ सकना, उन पर विश्वास और दया करना और बार बार उनके साथ अमन से रहने की आशा करना । एक ओर सिराजुहौला के ये व्यक्तिगत दोष, दूसरी ओर भारतीय जनता में राजनैतिक जागृति और उससे उत्पन्न होने वाले राष्ट्रीयता के भावों की कमी और तीसरी ओर उच्च श्रेणी के भारतवासियों के चरित्र की लज्जास्पद स्वार्थपरायणता और विश्वासघातकता-इन तीनों ने मिलकर न केवल सिराजुद्दौला का ही अंत कर दिया परन् सिराजुद्दौला की लाश के साथ साथ भारत की आज़ादी को भी सदियों के लिए दफन कर दिया। कल के समय सिराजुद्दौला की आयु २५ साल की भी न थी। समस्त अंगरेज़ इतिहास लेखकों में शायद करनल मालेसन हो एक ऐसा है जिसने सिराजुद्दौला के साथ इन्साफ़ करने की कोशिश की है । वह लिखता है :- "सिराजुद्दौला में और चाहे कोई भी दोष क्यों न रहा हो, उसने न अपने मालिक के साथ विश्वासघात किया और न अपने मुल्क को बेचा । इतना ही नहीं, वरन् कोई निष्पक्ष अंगरेज़ : फरवरी और २३ जून के बीच की घटनाओं पर इन्साफ़ से राय यम करते हुए इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि शराफत के पैमाने पर सिराजुद्दौला का नाम क्लाइव के नाम से ऊँचा नज़र आता है । उस शोकान्त नाटक के प्रधान पात्रों में अकेला एक सिराजुद्दौला ही ऐसा था जिसने किसी को धोखा देने की कोशिश नहीं की।"*
Whatever may have been his faults, Sirajuddoria had neather