पुस्तक प्रवेश की अवहेलना शुरू की, उनकी आँखें खुल गई। उन्होंने सन् ५७ में विदेशी सत्ता से अपने दई भाजाद करने का वह जोरदार प्रयत किया निसने एक बार वास्तव में अंगरेजी राज की जड़ों को हिला दिया और उसके अस्तित्व को खतरे में डाल दिया। सन् १७ का स्वाधीनता संग्राम हमारी पराधीनता के इतिहास की उस समय तक की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी। उसको नाति और असफलता के कारणों को हमने इस पुस्तक में विस्तार के साथ दूसरे स्थान पर बयान किया है। स्वाधीनता के प्रयत्न वास्तव में अंगरेजी हुकूमत भारतवर्ष में बाजाब्ता और पूरी तरह सन् १८५६ ही से जमी । उस समय ही भारतीय साम्राज्य की बाग विधिवत् उस व्यापारी कम्पनी के हाथों से नहीं, लो अन्त समय तक दिल्ली सम्राट की प्रजा होने का बनावदी दावा करती रही, बल्कि स्वयं भारत के अन्तिम सम्राट बहादुरशाह के हाथों से छीनकर इंगलिस्नान की मलका विक्टोरिया के हाथों में दी गई। ७० साल का समय या १७० माल का समय भी किसी देश के इतिहास में और खास कर भारत जैसे प्राचीन और सुसभ्य देश के इतिहास में कोई लम्बा समय नहीं होता । सन् १७ के बाद भी भारत ने अपनी आज़ादी की कोशिशों को एक क्षण के लिए भी ढीला होने नहीं दिया । सन् ५७ की क्रान्ति और पंजाब के कूका विद्रोह में केवल १५ साल का अन्तर था, सन् ५७ और काँग्रेस के जन्म में २८ साल का, काँग्रेस के जन्म और अङ्गभङ्ग के बाद के आन्दोलन में २० साल का, बङ्गभङ्ग और उस असहयोग आन्दोलन में, जिसने फिर एक बार सन् ५७ की क्रान्ति से भी अधिक और उससे उत्तर उपायों द्वारा अंगरेज़ी राज के अस्तित्व को खतरे
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पुस्तक प्रवेश