पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज - पहली जिल्द.djvu/२३९

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हमारा कर्त्तव्य

हमारा कर्तव्य 12 सकता है। इस सम्बन्ध में हमें सब से पहले दो बातों की ओर से सावधान रहना होगा। एक ग्रह कि घबराहट या किसी तरह के श्रावेश में आकर हम मानव जीवन के उन उच्च नैतिक सिद्धान्तों से न डिगने पाएँ जिनके बिना मानव समाज का सुख से रह सकना सर्वथा असम्भव है और जो मनुष्य के ऐहिक जीवन के आध्यात्मिक आधार स्तम्भ हैं । दूसरे यह कि नैराश्य था अकर्मण्यता को हमें एक क्षण के लिए भी अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए । इन दोनों बातों में से हम पहले दूसरी के विषय में कुछ कहना चाहते हैं। श्राज से पौने दो सौ साल पहले भारतवर्ष की एक चप्पा ज़मीन पर भी अंगरेजों का किसी तरह का अधिकार न था। आज (१९२६) से २७ साल पहले यानी सन् १९४२ तक वे दिल्ली सम्राट को अपना सम्राट स्वीकार करते थे, अपने तई उसकी विनम्र आज्ञाकारी प्रजा कहा करते थे, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सिक्कों में दिल्ली सम्राट का नाम खुदा होता था और कम्पनी के भारतीय इलाकों के अंगरेज़ गवरनर जनरल की मोहर में दिल्ली के बादशाह का फ़िदविए खास' ये शब्द खुदे रहते थे। निस्सन्देह अनभ्यस्त और भोले भारतवासी विदेशियों की इन चालों से धोखे में आते रहे । दिल्ली दरबार की निर्बलता ने धीरे धीरे उन्हें और भी अपाहज कर दिया। किन्तु ज्योंही भारतवासियों ने यह अनुभव करना शुरू किया कि इस नए राजनैतिक प्रयोग के नतीजे विविध प्रान्तों में देशी रियासतों और देश के जीवन के लिए कितने घातक साबित हो रहे हैं, ज्योंही सम्राट शाहआलम की मृत्यु (१८०६) के बाद कंपनी के प्रति- निधियों ने सम्राट अकबरशाह और उसके बाद सम्राट बहादुरशाह के पद