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अंग्रेजों का आना

अगरेजों का आना इसीलिए यदि निष्पक्षता के साथ देखा जाय तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सौ साल के इतिहास में जिन भारतवासियों ने अंगरेजों के साथ मिलकर अपने देश और देशवासियों को हानि पहुँचाई, उनमे से थोड़े सों को छोड कर बाकी का पाप केवल इतना ही था जितना किसी भी दो राजाओं के संग्राम में एक मनुष्य का एक पक्ष से दूसरे पक्ष की ओर चला जाना। यही वजह थी कि इनमें से अधिकांश देशघातकों ने विदेशियों के साथ अपनी प्रतिज्ञाओं का सदा सच्चाई के साथ पालन किया। हमें यह लज्जा के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि उन सौ साल के इतिहास में हमें अपनी ओर कई अक्षम्य देशघातकता और विश्वासघानकता की मिसाले भी मिलती हैं । किन्तु इस तरह की मिसालें किसी भी देश के इतिहास में इस तरह की परिस्थिति में थोड़ी बहुत मिलना स्वाभाविक है। इतिहास से स्पष्ट है कि अन्य अनेक दोषों के होते हुए भी भारतवासियों मे अपने वचन का पालन करना एक सामान्य नियम था जिसके कहीं कहीं सम्भव है अपवाद मिल सकते हों, दूसरी ओर कम्पनी के अंगरज़ प्रति- निधियों में अपनी प्रतिज्ञाओं का निस्सङ्कोच उल्लङ्घन एक सामान्य नियम था, जिसका शायद एक भी अपवाद मिलना कठिन है। इसीलिए सन् १७५७ से लेकर १८५७ तक बार बार के प्रतिकूल अनुभवों के होते हुए भी भारतवासियों ने सदा अंगरेजों की प्रतिज्ञाओं पर विश्वास कर लिया। इन सौ साल के इतिहास से यह भी ज़ाहिर है कि वीरता, साहस या युद्ध कौशल में भारतवासी कहीं भी अंगरेज़ों से पीछे नहीं रहे । अंगरेज़ों के भारतीय संग्राम अंगरेजों ने वहीं जोते, बल्कि भारतवासियों ने अंगरेजो के लिए जीत कर अपनी विजय का फल अंगरेजों के हवाले कर दिया।