१०६ पुस्तक प्रवेश किया। उसका उद्देश अाम जनता तक अपने विचारों को फैलाना था। कबीर ने अपनी साखी में एक जगह पर लिखा है-- संस्किरत है कूप जल, भाषा बहता नीर । अर्थ-संस्कृत कुएँ का पानी है, किन्तु भाषा (हिन्दी) बहती हुई नदी के समान है। कबीर के पद्यों में कही संस्कृत भरी हिन्दी और कहीं फारसी भरी उर्द, दोनों मिलती हैं। कबीर ने ईश्वर के लिए जगह जगह-राम, हरी, गोविन्द, ब्रह्म, समरथ, साई, सत्पुरुष, रंगरेजवा, बेचूँ (अनिर्वचनीय), अल्लाह और ख़ुदा--सब शब्दों का उपयोग किया है; किन्तु ईश्वर के लिए उसका सब से प्यारा नाम "साहेब" है । कबीर को इस बात का दावा है कि उसने "तुममे और मुझमे" प्राणिमात्र में, और सब पदार्थों में व्यापक "जाते पाक" का साक्षात दर्शन किया था । सूफ़ियों के समान ही कवीर ने स्थान स्थान पर खुदा को 'नूर' बतलाया है और हर चीज़ को खुदा माना है। रमैनी में बदरुद्दीन शहीद, इब्न सीना और जिली के अनेक पद्यों का बिल- कुल तरजुमा सा दिखाई देता है। सूफियों ही के समान कवीर ने गुरु को गोविन्द बतलाया है और अपनी साखी मे लिखा है-- हरि के कठे ठौर है, गुरु कठे नहिं ठौर । अर्थ-यदि हरि नाराज़ हो जाय तब भी कुछ बचत हो सकती है, किन्तु यदि गुरु नाराज़ हो जाय तब फिर कोई बचत नहीं । कबीर का यह पद्य मौलाना रूम के एक पद्य का तरजुमा मालूम होता है। कबीर ने गुरु को 'सिकलीगर' लिखा है । कबीर प्रेम का परम विश्वासी
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