सन् १८३३ का चारटर एक्ट शिक्षा के प्रचार, इन दोनों बातों का श्रेय मैकॉले ही को दिया जाता है। __मैकॉले एक विद्वान, किन्तु निर्धन अंगरेज था। उस समय के अन्य अंगरेजों के समान भारत आने में उसका मुख्य उद्देश भारत से धन कमाना था। उसने स्वयं अपने एक पत्र में लिखा है कि इङ्गलिस्तान के अन्दर अपनी लेखनी द्वारा वह मुश्किल से दो सौ पाउण्ड सालाना कमा सकता था। सन् १८३४ में वह गवरनर जनरल की कौन्सिल का लॉ मेम्बर नियुक्त होकर भारत पहुँचा । इस नए पद के विषय में उसने १७ अगस्त सन् १८३३ को इङ्गलिस्तान में रहते हुए अपनी बहिन के नाम एक पत्र में लिखा कि लॉ मेम्बर का पद- "अत्यन्त मान और आमदनी का पद है। वेतन दस हज़ार पाउण्ड सालाना है, जो लोग कलकत्ते से अच्छी तरह परिचित हैं, वहाँ उच्च से उच्च लोगों की श्रेणी के लोगों में मिलते रहे हैं, और उच्च से उच्च सरकारी पदों पर नियुक्त रह चुके हैं, वे मुझे विश्वास दिलाते हैं कि मैं वहाँ पर पाँच हजार पाउण्ड सालाना मे शान के साथ रह सकता हूं, और अपनी बाकी तनख्वाह मय सूद के बचा सकता हूँ । इसलिये मुझे आशा है कि केवल ३६ साल की उम्र में, जब कि मेरे जीवन की शक्तियों अपनी शिखर पर होंगी, तोस हजार पाउण्ड की रकम लेकर मैं इङ्गलिस्तान वापस पा सकेगा। इससे अधिक धन की मुझे कभी इच्छा भी न हुई थी।" इन दस हज़ार पाउण्ड सालाना के अलावा भारत के ख़ज़ाने से लॉर्ड मैकाले को लॉ कमिश्नर की हैसियत से पाँच हज़ार
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सन् १८३३ का चारटर एक्ट