पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज (दूसरी जिल्द).djvu/६६२

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लॉर्ड ऐमहर्ट

लॉर्ड ऐमहर्ट १०५४ दिनों में भी हिन्दोस्तानी और अंगरेज सिपाहियों के साथ दो तरह का व्यवहार होता था। उदाहरण के लिए प्रत्येक अंगरेज़ रणरूट को भरती होते ही बाउण्टी की एक रकम मिलती थी, हिन्दोस्तानी सिपाही को भरती के समय कुछ न मिलता था। अंगरेज़ सिपाहियों को छावनियों में रहने के लिए बनी बनाई बारग मिलती थी, हिन्दोस्तानी सिपाहियों को अपने झोपड़े खुद बनाने पड़ते थे। अंगरेज़ सिपाहियों के लिए फ़ौज का ऊँचे से ऊँचा श्रोहदा खुला हुआ था, किन्तु तीन लाख देशी सिपाहियों में से कभी कोई सूबेदार मेजर से बढ़ कर रुतबा प्राप्त न कर सकता था। देशी सिपाहियों की बन्दूके गोरे सिपाहियों की बन्दूकों की अपेक्षा अधिक भारी होती थीं। वन्दुके और साठ कारतूसों के अतिरिक्त हर देशी सिपाही को एक भारी थैला अपने कन्धे पर ले जाना पड़ता था, जिसमें उसकी सारी श्रावश्यक चीज़ होती थीं। अंगरेज़ सिपाहियों को कोई बोझ न ले जाना पड़ता था। दोनों की तनखाह, फरलो, पेनशन और भत्ते के कायदों में बहुत बड़ा अन्तर था। एक स्थान से दूसरे स्थान बदली होने पर देशी सिपाहियों को अपने रहने का प्रबन्ध अपने खर्च से करना होता था, गोरे सिपाहियों को नहीं । देशी सिपाहियों के धार्मिक और सामाजिक भावों का बहुत कम ख़याल रक्खा जाता था। उनसे अंगरेज़ सिपाहियों की अपेक्षा कई गुना अधिक काम लिया जाता था। बङ्गाल के हिन्दोस्तानी सिपाहियों के साथ बम्बई और मद्रास के हिन्दोस्तानी सिपाहियों से भी अधिक बुरा व्यवहार किया जाता