भारतीय उद्योग धन्धों का सर्वनाश ४२३ था । किन्तु यह सब उजट गया और जो खाने पीने की चीजें अब इलिस्तान से भारत भेजी जाती हैं उनमें चीनी ५३.३ प्रतिशत होती है और सूती कपड़े के बाद हिन्दुस्तान में भेजी जाने वाली वस्तुओं में चीनी का ही दूसरा नम्बर है। इस तरह कुछ समय पहले जो दो चीजें भारत से सब से अधिक मिकदार में बाहर भेजी जाती थीं वही भारत मे पाने वाली बन गई।"* मन् १८३०-३२ को पार्लिमेण्टरी कमेटी के मेम्बरों ने बयान किया कि उस समय दो करोड़ पाउण्ड यानी भारत के उद्योग तीस करोड़ रुपए सालाना की आमदनी धन्धों का नाश और स्वाधीनता इङ्गलिस्तान के कारीगरों और मजदूरों को भारत के व्यापार से हो रही थी। इसके बाद इङ्गलिस्तान की यह प्राय प्रति वर्ष बढ़ती चली गई । और जिस औसत से यह प्राय बढ़ती गई उसी औसत से भारतवर्ष की पराधीनता भो । हमारे उद्योग धन्धे और व्यापार के नाश और हमारी स्वाधीनता के नाश में इतना घनिष्ट सम्बन्ध है कि दोनों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता । एक की कड़ियाँ ढीली होने से दूसरे पर उसका लाज़िमी असर होता है। एक अंगरेज़ लेखक इस विषय का वर्णन करते हुए बड़े सुन्दर शब्दों में लिखता है :- "मालूम होता है हम इस बात को पूरी तरह अनुभव नहीं करते कि हिन्दोस्तान यदि हमारे हाथ से निकल गया तो बिला शुबहा एशिया के साथ हमारी सारी तिजारत का खात्मा हो जावेगा। किन्तु यदि हम सोचें तो यह • “ The Commercsal Products of India" by Sir George Watt, p 958
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भारतीय उद्योग धन्धों का सर्वनाश