७०२ भारत में अंगरेजी राज मौजूद थे, उन्हीं के समझाने बुझाने पर शाहबालम ने अंगरेजों का साथ दिया । अन्त में शाहआलम का डर सञ्चा निकला। १६ सितम्बर सन् १८०३ दी को जनरल लेक ने दिल्ली का सारा शासन प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया । कहने के लिए इसके बाद भी कम्पनी के अफसर और अंगरेज शासक दिल्ली के सम्राट को हिन्दोस्तान का सम्राट मानते रहे, और कम्पनी सरकार का उसे अधिराज स्वीकार करते रहे, किन्तु वास्तव में इस समय से हो इन उपाधियों में सिवाय उपचार के और कुछ बाकी न रह गया । लेक ने दिल्ली की श्रामदनी में से बारह लाख रुपए सालाना सम्राट के खर्च के लिए नियत कर दिये और भारत का सम्राट एक प्रकार से विदेशी कम्पनी का पेन्शन रह गया। सम्राट के साथ जनरल लेक के इस सलूक को बयान करते हुए इतिहास लेखक मेजर आर्चर लिखता है- ___"इसमें सन्देह नहीं कि सम्राट हम अंगरेजों को सब से कम पसन्द करता है, क्योंकि उसकी सल्तनत हमारे चंगुल से निकल कर फिर कभी भी उसके हाथों में नहीं जा सकती;x x x अंगरेजों ने बहुत दिनों से समाट के अधिकार को नहीं माना, किन्तु जब तक उन्हें इससे फायदा रहा ये कपट नीति द्वारा सम्राट की और ऊपर से भादर दिखलाते रहे, और जब उन्हें सम्राट के नाम की सहायता की भी जरूरत न रही तो उन्होंने xxx अपनी समख कृतज्ञता को एक पेन्शन के अन्दर बन्द कर दिया | xxx सम्राट से उसके राजस्व के साथ प्रजग कर दिए गए, सल्तनत की वार्षिक 'माय उससे छीन कर विदेशियों के काम में खाई गई, सिवाय अपने खास
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भारत में अंगरेज़ी राज