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भारत में अंगरेज़ी राज

६६ भारत में अंगरेजी राज के सूबेदार के अधीन था, शेष समस्त उड़ीसा पर दीवानी और फौजदारी दोनों के सम्पूर्ण अधिकार मराठों के हाथों में थे। किन्तु मराठों की सत्ता उस समय इतनी जबरदस्त थी और अंगरेजों का बल अभी इतना कम था कि उड़ीसा में रहने वाले अंगरेज मराठों को श्राज्ञाकारी और नन प्रजा की तरह उस प्रान्त में व्यापार करते रहे। लिखा है कि सन् १७६७ में जब मराठों ने कम्पनी से 'चौथ' की पिछली बकाया तलब की तो कम्पनी के डाइरेक्टर पिछलो बकाया के १३ लाख रुपए देने के लिए राजी हो गए और साथ हो यह भी चाहा कि मराठे समस्त उड़ीसा प्रान्त की दीवानी का अधिकार कम्पनी को दे दें; किन्तु पत्र व्यवहार होने पर मराठों ने इस दूसरी बात को स्वीकार न किया । मालूम होता है कि उस समय से हो उड़ीसा में मराठों के विरुद्ध अंगरेजों की साजिशे शुरू हो गई। उड़ीसा में मराठों के अत्याचारों की अनेक झूठी कथाएँ भी उसी समय से गढ़ गढ़ कर फैलाई जाने लगीं। ३ अगस्त सन् १८०३ को मार्किस वेल्सली ने करनल कैम्पबेल को एक लम्बा पत्र लिखा जिसमें उसे कटक करनल कैम्पबेल व प्रान्त पर चढ़ाई करने और वहाँ पर राजा को प्रादेश असली भोसले की सामान्य प्रजा, जगन्नाथपुरी के पण्डों और प्रान्त तथा श्रास पास के सरदारों, जमींदारों और सामन्तों को राजा राघोजी भोसले के विरुद्ध भड़काने और उनके साथ तरह तरह से साजिशे करने को विस्तृत हिदायतें दी गई। ये विस्तृत हिदायतें वेल्सली की कूटनीति को बड़ी सुन्दरता से