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भारत में अंगरेज़ी राज

भारत में अंगरेजी राज और भोसले दोनों से सलाह किए बिना बसई की सन्धि पर हस्ताक्षर न करता । इसके अतिरिक्त पहले मराठा युद्ध के बाद लालबाई में अंगरेज़ों और पेशवा दरबार के बीच जो सन्धि हुई थी वह दौलतराव सींधिया के पूर्वाधिकारी माधोजी सींधिया की ही मध्यस्थता में हुई थी। उस सन्धि के अनुसार श्रावश्यक था कि बलई में पेशवा के साथ नई और इतनी क्रान्तिकारी सन्धि करने से पूर्व अंगरेज़ और पेशवा दोनों दौलतराव से सलाह कर लेते। इतना ही नहीं, वरन् वसई की सन्धि के पक्का होने के लिए उस पर सींधिया और भोसले दोनों के हस्ताक्षर फतई ज़रूरी थे। बाजीराव सब समझता था, किन्तु अपनी अदूरदर्शिता के कारण पूना छोड़ने के समय से ही यह पूरी तरह दूसरों के वश में था। उधर दौलतराव सींधिया और बरार का राजा दोनों इस बात को समझते थे कि पेशवा का इस प्रकार बसई की सन्धि विटेशियों के फन्दे में फंस जाना भविष्य में से मराठा मण्डल को प्राशंका अन्य मराठा नरेशों की स्वाधीनता के लिए शुभ सूचक नहीं हो सकता और न इसके बाद मराठा साम्राज्य ही अधिक देर तक कायम रह सकता है। गवरनर जनरल और अन्य अंगरेजों के पत्रों से साबित है कि मराठा नरेशों की ये अाशंकाएँ बिलकुल सच्ची थीं। वेल्सली की कौन्सिल के प्रमुख सदस्य बारलो ने, जिसके विषय में इङ्गलिस्तान के डाइरेक्टर यह आज्ञा दे चुके थे कि यदि वेल्सली की मृत्यु इत्यादि के कारण अकस्मात् गवरनर जनरल का पद खाली हो तो