सूरत की नवाबी का खात्मा ५३७ ही गवरनर को प्राक्षा दी कि तुम हिन्दोस्तानी पैदल सिपाहियों की दो नई रेजिमेण्ट अपने यहां बढ़ा लो, नई सन्धि पर नवाब नसीरहीन के दस्तखत कराने के लिए खुद सूरत जाश्रो और अपने पहुंचने से पहले एक कम्पनी गोरे तोपखाने की, दो कम्पनियाँ गोरे पैदलों की और एक पूरी रेजिमेण्ट हिन्दोस्तानी पैदलों की सूरत भेज दो। अन्त में नवाव नसीरुद्दीन को वेल्सली की ख्वाहिश पूरी करनी पड़ी। १३ मई सन् १८०० को नवाब ने नए सन्धिपत्र पर दस्तखत कर दिए और अपनी तक रियासत से सदा के लिए हाथ धो लिए। दिल्ली के दरवर्ती मुगल दरबार में उस समय इतना बल न रह गया था कि अपने अधीन नवाब की रक्षा कर सके। नवाब का राजपाट छीन कर भी उसे बेमुल्क नवाब बनाए रखना जरूरी समझा गया। जिस दिन नसीरुहीन ने सन्धिपत्र पर दस्तखत किए उससे अगले दिन उसे शान शौकत के साथ नवाबी की मसनद पर बैठाया गया। अंगरेज सरकार ने अब उसका नवाब होना स्वीकार कर लिया। सन्धिपत्र के शुरू में लिखा गया-"माननीय अंगरेज़ कम्पनी और मवाब नसीरुद्दीन खाँ इत्यादि के दरमियान जो दोस्ती मौजूद थी, उसे इस सन्धि द्वारा अधिक मजबूत और पक्का किया जाता है।" इतिहास लेखक मिल ने सूरत के निर्बल नवाब के साथ कम्पनी के इस अन्याय को और वेल्सली के झूठ और बेईमानी को निष्पक्षता के साथ स्वीकार किया है। • History of British India, by Mul, vol vi, pp 208-211 -
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सूरत की नवाबी का खात्मा