सन् १८५७ के बाद १६८१ अंगरेज़ रेज़ि डेण्टों, पोलिटिकल एजण्टों इत्यादि द्वारा कदम कदम पर देशी नरेश के न्याय अधिकारों में हस्तक्षेप होता रहा है, जिस तरह हिन्दोस्तानी राजकुमारों की शिक्षा पर अंगरेज़ नीतिश ने सदा अपना ही अनन्य अधिकार बनाए रखा, जिसमें कभी कभी उन कुमारों के अभिभावकों और स्वयं गद्दीनशीन नरेशों तक को दखल देने का अधिकारी नहीं समझा गया, जिस तरह अनेक राजकुमारों के चरित्र का व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग से सत्यानाश किया गया है और फिर कभी कभी उस चरित्र हीनता को ही उनको अयोग्यता का सुबूत ‘ माम लिया गया है, यह सब तम्वी और दुखकर कहानो संसार के साम्राज्यों के इतिहास में अपना तास स्थान रखती है । इसकी दूसरी मिसालें ढूंढ़ने के लिए हमें पच्छिम एशिया के ऊपर श्रा से चार पाँच हज़ार साल पहले के मिश्री साम्राज्य और उसके दो तीन हज़ार साल बाद के रोमन साम्राज्य के इतिहास , को पढ़ना होगा । किन्तु यह सब विषय हमारी इस पुस्तक के प्रसंग से बाहर है। अंगरेजों की देशी फ़ौज के सिपाही ज़्यादातर देशी रियासतों से भरती किए जाते हैं, और ब्रिटिश भारत के किसी भी विद्रोद को दमन करने में वे ही अधिक उपयोगी साबित होते हैं। हिन्दोस्तान में अंगरेजों के उपनिवेश यानी अंगरेजी बस्तियाँ बसाने का चरचा बारन हेस्टिंग्स के समय से वे -भारत में अंगी चला आता था। किन्तु इस विषय पर अंगरेज उपनिवेश में सदा काफ़ी मतभेद रहा । नीति अनेक
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१६८१
सन् १८५७ के बाद