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सन् १८५७ के बाद

में इस तरह के किसी परोपकार सूचक वाक्य की रूरत महसूस न हुई।

सन् १८५३ के चारटर एक्ट के पास होने के समय अंगरेज शासकों ने जो गवाहियाँ पालिमेन्ट की सिलेक्ट कमेटी के सामने दीं उनसे साफ़ मालूम होता है कि उस समय भारत के अंगरेज शासकों का एक मात्र उद्देश यह था कि जिस तरह हो सके, इस देश से धन चूस कर झन्नलिस्तान को धनाड्य बनाया जावे और अंगरेजी तालीम और ईसाई मत प्रचार के जरिये हिन्दोस्तान के राष्ट्रीय चरित्र को निर्बत कर उन्हें सदा के लिएअंगरेज क़ौम का गुलाम बना कर रखा जाये।

सन् ५७ के कुछ पहले से इलिस्तान के श्रन्टर इस धांत के लिए फिर जबरदस्त प्रान्दोलन जारी था कि कम्पनी के विशाल भारतीय साम्राज्य का इन्तजाम कम्पनी के कार्यों से लेकर बंराहरास्त इई. लिस्तान के बादशाह और इलिस्तान की पालिमेण्ट के वर्षों में दे दिया जाय । इस आन्दोलन की दो खास वजह बताई गई। पहली वजह यह थी कि हिन्दोस्तान ही की और खास कर बंगाल की 'लूट' के प्रताप से १४ वीं सदी के आह्मीर के दिनों से इंगलिस्तान के पिछड़े हुए उद्योग धन्धे बढ़ने शुरू हुए और लंका शायर नादि के कारखाने खुलने लगे। इन नए कारख़ानों के मालि को एक तरफ़ तो रुई जैसे कच्चे माल की जरूरत थी और रुई इनलिस्तान में न हो सकती थी। शुरू में कुछ रुई अमरीका से इलिस्तान मंगवाई गई किन्तु वह बहुत महंगी पड़ती थी।