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भारत में अंगरेज़ी राज

१६६४ भारत में अंगरेजी राज आत्मगौरव, कर्तव्यपरायणता और जीवन शक्कि का अन्त हो चुका L, ! अंगरेज शासकों के हौसले फिर सहलों गुने बढ़ गए होते और भारतवासियों के जीवन में यात्रा की छटा तक कहीं दिखाई न देती । इसमें तो कुछ भी सन्देह नहीं कि फिर हिन्दू या मुसलमान एक भी देशी रियासत भारत में वाक़ी न बची होती । भारत वासियों की अवस्था इस समय तक क़रीब क़रीव वैसी ही होती जैसी अफ्रीका और अमरीका के उन आादिम नियासियों को, जिनके सहस्त्रों वर्षों के अस्तित्व को यूरोपियन जातियों ने संसार से मिटा दिया और जिनके प्रदेशों में श्रव यूरोपियन जातियों के उपनिवेश बने हुए हैं । इस सब दृष्टि से सन् ५७ के क्रान्तिकारियों का भीषण बलिदान कदापि व्यर्थ नहीं गया । उन लोगरों के असफल प्रयत्नों ने, जब कि एक ओर अंगरेज शासकों की आंखें खोल दीं और उन्हें सावधान कर दिया, दूसरी ओोर उन्होंने भारतवासियों के राष्ट्रीय जीवन में श्राशा और आत्म विश्वांस की बह झलक पैदा कर दी जो सौ वर्ष तक भी कभी फीकी नहीं पड़ सकती। पक और बात इस विषय में ध्यान देने योग्य है । किसी भी ? देश की कोई इतनी महान घटना संसार के अन्य सन् २७ की देशों पर अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकती। " क्रान्ति का नम्य "ठीक सन् ५७ में अंगरेज चीन के साथ युद्ध करने देशों पर असर का सकल्प कर चुके थे । जिस अंगरेजी सेना की मदद से लॉर्ड कैनिस ने भारत को फिर से विजय कियाउसमें से अधिकांशीन पर हमलाकरने के लिए रवाना हो चुकी ।