सन् ५७ के स्वाधीनता संग्राम पर एक दृष्टि १६६३ पुस्तक में किया जा चुका है। उस समस्त दुःखकर कहानी को दोहराना असम्भव और निरर्थक है। लॉर्ड डलहौजी ही के भारतीय रियासतों को हड़पने के विषय में हम इतिहास लेखक तडलो फो। यह राय उद्धत कर चुके हैं कि “यदि इन हालात में उन लोर्गों के पक्ष में, जिनकी रियासतें टीम खी गई थीं और टीनने वालों के विरुद भारतवासियों के भय न भड़क उठते तो भारतवासी मनुष्य से गिरे हुए समझे जाते '8 इसी प्रकार यदि दिल्ली सम्राट के लगातार अपमान और लखनऊ की स्वाधीनता के नाश से भारतवासियों के हृदय में जोश उत्पन्न न होता तो वे मनुष्य न कहला सकते। ऐसे ही मनुष्य का विचार चाहे सत्य हो बा सत्यकिन्तु जिस चीज को भी मनुष्य अपना धर्म समझता है उसको नाघात से बचाने के लिए यदि वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार नहीं हो जाता, तो उसे मनुष्य नहीं कहा जा सकता । ऐसी अवस्था में यदि भारतवासियों में मनुष्यत्व वाको या तो सन् 19 की क्रान्ति स्वाभाविक और अनिवार्य थी। उस क्रान्ति के आदाँके विषय में या क्रान्तिकारियों के सम्मुख वास्तविक और उच्चतर श्रादर्शी के प्रभाव के विषय में हम जाहे कुछ भी फ्यर्षों में फहैंकिन्तु इसमें सन्दे नहीं कि यदि सन् १७ की क्रान्ति न हुई होती तो उसका यही अर्थ था कि भारतवासियों में से साहस, है • " Thanga ak " f th: Cen, bLullor, p, 35, 36. १०५
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सन् ५७ के स्वाधीनता संग्राम पर एक दृष्टि