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भारत में अंगरेज़ी राज

१६२ भारत में अंगरेजी राज मनुष्य जाति हज़ारों साल से आजमा चुकी थी । सन् ५७ में जिस पक्ष को भी विजय होती बह विजय हिंसा के सिद्धान्त की ही थे होती। स्वाभाविक था कि उस संग्राम में वही पक्ष अन्त में विजय प्राप्त करे जो हिंसा के सिद्धान्त और उसके उपयोग में अधिक निस्सकोच और अधिक सिद्धहस्त हो। भारत या एशिया का वास्तविक और चिरकालीन गौरव यूरोप के ऊपर तरह की इस विजय में न था । हमें पूरा विश्वास है कि हिंसाके ऊपर ‘अहिंसा" की श्रेष्ठता और अधिक बलबता की आमली शिक्षा संसार को देने का कार्य भारत ही के लिए नियुक्त है, और सन् ५७ की राष्ट्रीय क्रान्ति की शताब्दी से पहले भारत के पग उस अधिक ज्वलन्त विजय की ओर साफ बढ़ते हुए दिखाई दे रहे हैं। किन्तु यह सब केवल विश्वास और अनुमान की चीजें है। सन ५७ की असफलता की याद किसी भी विचारवान भारतवास्त्री के हृदय को दुखी और सन्तप्त किये बिना नहीं रह सकती। मालूम होता है कि शायद हमारी इन सब त्रुटियों की पूर्ति के लिए और भारतीय मामा के पूर्ण परिमार्जन के लिए ही इस देश को अभी से कुछ समय और विदेशी शासन के तातदिव्य में से होकर निकलना वदा था । एक प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि यदि सन् ५७ की क्रान्ति ही न हुई होती तो नतीजा क्या होता है सन् यदि क्रान्ति न १७४७ से १८५७ तक के कम्पनी के राज और हुई होती ? उसके साधन और कृत्यों का बयान इस :