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सन् ५७ के स्वाधीनता संग्राम पर एक दृष्टि

सन् ५७ के स्वाधीनता संग्राम पर एक दृष्टि १६५ दिखाई देता था। विध । विदेशियों की अनेक करतूतों और ख़ास कर चरबी के कारतूस ने उनकी इस आशंका को खासा मज़बूत कर दिया था। इन भारतीय बोरों के हृद्य की सचाई, इनके त्याग और इनकी वीरता का हमें भार है । किन्तु हमें यह मानना होगा कि सर्वव्यापी मानवधर्म की दृष्टि से ऐसे लोग किसी श्रधिक उच्च धार्मिक आदर्श के लिए खड़े न हुए थे 1 रूढ़ियां कढ़ियां हैं, और ई.है । कि इन हिन्दू, मुसलिम या ईखईपृथक पृथक धर्मों का समय संसार से बहुत दिनों का उठ चुका । सच्चा वास्तविक मानव धर्म समुष्य मात्र के लिए एक है ' इस सच्चे धर्म की झलक अनेक हिन्दू, मुसलमान और अन्य महात्माओं की वाणी में समय समय पर मिल चुकी है, यहाँ तक कि वे लोग अपने आप को हिन्दू मुसलमान इत्यादि कहने से भी परहेज़ करते थे। समस्त संसार इस सच्चे व्यापक धर्म की बाट जोह रहा है, और जिस भारत मे कबीर और नानक जैसों को पैदा किया उससे प्राशा की जाती है। कि वह संसार को इस सच्चे सार्वजनिक धर्म की ओर ले जाने में अग्रसर होगा। ऐसी सूरत में सत्र ५७ के अनेक क्रान्तिकारियों की ‘, धर्म !और ‘दीन, दीन !' की नाबाज़ न खाईवभौम सत्य की इष्ट से बहुत ऊँची थी और न धर्म के क्षेत्र में भारत के वास्तविक गौरव के उपयुक्क थी । इन दोनों धर्मों की पृथक पृथक लहरें भारतीय समाज के जीवन में पिछले एक हज़ार साल के श्रन्टर अनेक ढंग से टकरा चुकी थीं । हम इस पुस्तक के शुरू में दिखना चुके हैं कि एक उसे