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भारत में अंगरेज़ी राज

१४६२ भारत में अंगरेजीराज भागे हुए अफसरों के साथ वह वैसा ही घरताव करता था जैसा किसी भी दुखित मनुष्य के साथ । उसने मुसीबत में उनकी सहायता की, उसने उन्हें । उनके स्थानों तक सुरक्षित पहुँचा दिया । किन्तु जब बिदा होते समय कप्तान बैरो ने राजा हनुमन्तसिंह से कहा कि-'मुझे श्राशा है, आप इस विप्नच के शान्त करने में अंगरेजों को मदद देंगे तो राजा हनुमन्तसिंह सीधा खड़ा हो गया और बोला-'साहब, तुम्हारे मुल्क के लोग हमारे मुल्क में घुस श्राए और उन्होंने हमारे बादशाह (वाजिदअली शाह) को निकाल दिया । तुमने अपने अफसरों को जिलों में भेजा ताकि वे पुराने रईसों और ज़मींदारों के पहों की जाँच करें। एक बार में तुमने मुझसे वे सब जमीनें छीन ली जो अनन्त काल से मेरे कुटुम्ब में चली आती थीं । मैंने सह लिया। अचानक तुम पर आफत बाई, तुमने मुझे बरवाद किया था और तुम मेरे ही पास पाए । मैंने तुम्हें बचा,दिया । किन्तु श्रय-प्रय मैं अपनी सेना जमा करके लखनऊ जा रहा है और तुम्हें मुल्क से बाहर निकालने की कोशिश करूँगा।" इतिहास से पता चलता है कि उस समय अवध के अन्दर अनेक ही हिन्दू और मुसलमान हनुमन्तसिंह मौजूद थे, जिनमें जितना जवरदस्त स्वाधीनता का प्रेम था उतनी ही जबरदस्त वीरोचित उदारता भी थी। सारांश यह कि ३१ मई और १० जून के बीच केवल लखनऊ शहर के एक भाग को छोड़ कर समस्त अवध अवध निवासियों अंगरेजी राज के चंगुल से निकल गया । प्रसिद्ध की उदारता इतिहासवेत्ता फ़ॉरेस्ट लिखता है- •indleson's Indian Mntiny, vol. iii, p. 273.(footnote).