पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/६४

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भारत-भारत देते प्रजाहित हो वढ़ा कर प्राप्तकर वे सथा, ॐ भूमि से जल रवि उसे देता सहस्र गुना यथा । बन कर मृत-स्थानीय भी हरले प्रजा का सच थे, करते तदर्थ न पुत्र के भो त्याग१ में सङ्कोच थे ।।१४१।। हैं भय कायर न मेरे राज्य में तस्कर कहीं, व्यभिचारिणी तो फिर कहाँ जब एक व्यभिचारी नहीं । यो सत्यवादी नप बिना संच कहते थे यहाँ, केाई अताई विश्व में शासक हुए ऐसे कहाँ ? ।।१४२।। १-(क) प्रजानामेच भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिनग्रहीत् । सहस्त्रगुणमुष्टुमचे हि र रविः ॥ रघुवंश । (ब) ग्रेन थेन वियुज्यन्ते प्रजाः स्निग्धन बन्धुना है। | स स पपाडते तासां दुष्यन्त इति धुच्यताम् । शुन्तलः । (ग) महाराज सगर का, प्रजा को कट देने के कारण अपने चुन्न | असमंजस को निकाल देना प्रसिद्ध हैपौराणामहिते युक्तः पित्रा निवासितः पुरात् । | बाल्मीकिं । २-जब केकय देश के राजा श्वपति के यहाँ सत्ययज्ञ, इन्द्रद्युम्न और उद्दालक आई: महर्षि आये तो अश्वपति ने उनकी यथोचित पूजा की है कि अपने यहं ठहरने के लिये प्रार्थना करते हुए कहा:----

  • न में स्तेनो जनपई ने कइयों न मद्यपः । । नानासनोविच स्त्री स्वैरिणी कुतः” इत्यादि ।

छान्दोग्योपनिषद् ।