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अतीत-खण्ड


जाकर कहाँ हमने जलाई अगि युद्ध-अशान्ति की है।
थे घूमते सर्वत्र पर हमने कहाँ पर क्रान्ति की है।
करते वही थे हम कि जिससे शान्ति सुख पावे समी,
स्वार्थान्ध होकर, पर-हिल-नत छोड़ सकते थे कभी ? ।।१३७।।

भूले हुई का पथ दिखाना यह हमारा कार्य था,
राजत्व क्या है, जगत हमको मानती चाय था ।
आतङ्क से पाया हुआ भी मान कोई मान हैं ?
खिंच जाय जिस पर मन स्वयं सच्चा वहीं वलेवान है ॥१३८।।

राजत्व और शासन
हम भूप होकर भी कमी होते न मोगाऽसक्त थे,
रह कर विरक्त विदेह जैसे आत्मयोगाऽसक्त थे ।
कर्तव्य के अनुरोध से ही कार्य करते थे सभी,
राजत्व में भी फिर भला हम भूल सकते थे कभी ? ।।१३९।।

हाँ मंदिन-पति भी यहाँ के भक्त और विरक्त थे,
होते प्रजा के अर्थ ही वे राज्यकासक्त थे । ।
सुत-तुल्य ही वे सौम्य उसको मानते थे वादा,
होती जी का अर्थ ही सन्तान' संस्कृत में सद! !! १४० ।।

मुसलमान हो गये; कुछ भारत की ओर भाग अधेि ।
यहाँ सन् ७६७ के लगभग गुजरत के हिन्दू नरेश यादवरानी ने उन्हें शरण देकर संज्ञान नामक नगर में बसाया । संजोन इस समय उड़ाई पड़ा है।

पारसियों का इतिहास ।