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भारत-भारती




जग जान ले कि न जाय केवल नाम के ही अयं हैं,
घे नाम के अनुरूप ही करते सदा शुभ कार्य हैं ।।५६।।

ऐसा करो जिसमें तुम्हारे देश का उद्धार हो,
जर तुम्हारी जाति का बेड़ा बिपद से पार हो ।
ऐसा न हो ज अन्त में चर्चा करें ऐसी सभी
थी एक हिन्दू' नाम को भी निन्य जाति यहाँ कभी ।।५७।।

समझो के भारत-भरिक केवळ भूमि के हो प्रेम को,
चाहो सदा निज देशवासी बन्धुः के क्षेम को ।।
यों सभी जड़ जन्तु भी स्वस्थान के प्रति भक्त हैं;
कृमि, कोट, खा, मृर मोन भी हमसे अकि अनुरक्त हैं ।।५८।।

लाखों हमारे दीनदुखी वन्धु भूखों मर रहे,
पर हम व्यसन में डूब कर कितना अपव्यय कर रहे हैं।
क्या देश-वत्सलता यही है ? क्या यही सत्कार्य है ?
क्या लक्ष्य जीवन का यही हैं ? क्या यहो औदयों ? ।।५९।।

मुख से न होकर चित्त से देशानुरारी हों सदा,
हैं सब स्वदेश बन्धु, उनके दुःखभाग हो सदा ।
दे कर उन्हें साहाय्य भरसक सब विपत्ति-व्यथा हरो,
निज दुःख से ही दूसरों के दुःख का अनुभव करी ।।६०।।

अन्तःकरण उज्वल करो औदार्य के आलोक से,
निम्मल बनो सन्तप्त होकर दूसरों के शोक से ।।
आत्मा तुम्हारा और सब का एक नरवच्छेद है,
कुछ भेद बाहर क्यों न हो, भीतर मला क्या भेद है ?।।६१।।