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भविष्यत् खण्ड


द्ध कर लेता, द्रुम, गुल्म भी हैं फूलते फलते यहाँ,
तो मी समुन्नति-माई में हम लोग चलते हैं कहाँ ?
धन धूम कर हो गरजते हैं, बरसते हैं सब कहीं,
इम किन्तु निष्क्रिय हैं तभी तो तरसते हैं सब कहीं ॥ ३० ।।

जड़ दीप तो देकर हमें अलोक जुलता आप हैं,
पर एक हममें दूसरे को दे रहा सन्ताप है !
या म जड़ों से भी जगत में हैं गयें बीते नहीं ?
हे भाइयों ? इस भाँति तो तुम थे कभी जीते नहीं ।। ३१ ।।

सोचो कि जीने से हमारे लाभ होता हैं किसे ?
है कौन, अरने से हमारे हानि पहुँनेगी जिसे ?
होकर न होने के बराबर हो रहे हैं हम यहाँ,
दुर्लभ मनुज-वन बृथा ही खो रहे हैं हम यहाँ ! ॥३२।।

हो प्राप, और सभी जनों को नित्य उत्साहित करो,
उत्पन्न तुम जिसमें हुए, निज देश का कुछ हित करें ।
नर-जन्म पाकर लोक में कुछ काम करना चाहिये,
अपना नहीं तो पूर्नज का नाम करना चाहिये ।।३३।।

अनुदारता-दर्शक हमारे दूर सब अविवेक हो;
जितने अधिक हों तन भले हैं, मन हमारे एक हों।
अचार में कुछ भेद हो पर प्रम हो व्यवहार में,
देखें, हमें फिर कौन सुख मिलता नहीं संसार में १ ।।३४।।