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भारत-भारती




गुण, ज्ञान, गौरव, मान्न, धन यद्यपि सभी कुछ खा चुके, गजमुक्त शून्य कपित्थ-लम नि:सार अब हम हो चुके ।।
पर हैं इबाते दीनता श्वेताम्बों में भूल से !
सम्भव कभी है अरिह को भी दाब रखना तूल से ? ।।२८७।।

दबतो कहीं आडम्बरों से बहुत दिन तक दीनता ?
भिलता नहीं फिर क़ज़ भी, होती यहाँ तक हीनता ।
उद्योबा तो हम क्या करेंगे जो अपव्यय कर रहे,
पर हाँ, हमारे हाथ से हैं दीन-दुर्बल मर रहे ।।२८८।।

अव आय तो है घट गई, पर व्यय हमारा बढ़ गया,
तिस पर विदेशी सभ्यता का भूत हम पर चढ़ गया।
ऋण-र दिन दिन बढ़ रहा है दूब रहे हैं हम यहाँ,
देता जिन्हें हो, कुछ नहीं भी पास उनके है कहाँ ? ।।२८९।।

निज पूर्बजे का हास्य करना है हमारा खेल-सr,
लाता हृदय में मेल हमको अति भयङ्कर शेल-सा ।
कोई कहे हित की उसे हमें शत्र, समझेंगे वहीं,
मधु मय अपथ्य अभोष्ट है, कटु पथ्य हमको प्रिय नही ।।२९०।।

रहते गुणों से तो सदा हम लोग कोसों दूर हैं,
र लोक में अपनी प्रशंसा चाहते भरपूर हैं !
इम तेल ढुलका कर दिये से हैं जलाना चाहते
काटे हुए तरु में मनोहर फल फलाना चाहते ! ।।२९१।।