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भारत-भारती


व्याधियाँ
बेमौत अपने आप यों ही हम अमागे मर रहे, हा !
प्लेग-जैसे रोग तिस पर हैं चढ़ाई कर रहे ।
उच्छिन्न होकर अद्धभुत-सी छटपटाता देश है,
सव ओर क्रन्दन हो रहा है, क्लेश को भी क्लेश है ।।७७।।

गौराङ्गण भी तो अहो ! थोड़े यहाँ रहते नहीं,
आश्चर्य किन्तु नहीं कि वे दुखदाह से दहते नहीं।
वें स्वस्थ क्यों न रहें, उन्हें कब और कौन अभाव है ?
बस, दुःख में ही दुःख होता, घाव में हो घाव है ।।७८।।

भारत न ऐसा है कि अब वह और भी दुख सह सके,
इसकी बुर गति मारती ही कह सके तो कह सके ।
कृश हो गया सहसा सरोवर, छटपटाते मीन हैं,
तप-तप्त तरुवर शुष्क हैं, द्विज दीन हैं गति हीन हैं ।।७९॥

व्यापार
इस रत्नगर्भा भूमि पर हा देव ऐसी दीनता,
है शोच्य कृषि से कम नहीं व्यापार को भी हीनता ।
जिस देश के वाणिज्य की सत्र धूम मची रही-
क्या पर-सुखापेक्षी नहीं है आज पद एट एर बहो ? ।। ८० ।।

अव रख नहीं सकते स्वयं हम लाज भी अपनी अहो !
रखते विदेशी वस्त्र उसको, सभ्य हैं हम, क्यों न हो ?