पृष्ठ:भारत की एकता का निर्माण.pdf/२२३

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२०२ भारत की एकता का निर्माण है, उस पर मैं जानबूझ कर जोर दे रहा हूँ। क्योंकि मैं समझता हूँ कि आज जो हालत है और जो समस्याएँ मुल्क के सामने हैं, उन्हें हम तभी सुलझा सकेंगे, जब कि हम उस भावना और उन गुणों पर और भी अधिक जोर दें, जिनसे बीते जमाने में हमें इतना लाभ हुआ था। आखिर इस बात को तो हमें ध्यान में रखना ही चाहिए कि हमें आजादी ऐसे समय में मिली है, जब कि राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में हमारे चारों ओर समस्याओं का एक तुफानी समुद्र-सा फैला हुआ है। मनोवैज्ञानिक और भौतिक दोनों रूपों से युद्ध से शान्ति की ओर परिवर्तन बहुत देर से हुआ और इसका फल यह हुआ कि हम अब भी घबराहट और अनिश्चितता की परिस्थितियों में फंसे हुए हैं। हमारी सारी आर्थिक व्यवस्था बिगड़ गई है और हमारी नागरिकता की भावना एक ओर तो युद्ध की तबाहियों और दूसरी ओर युद्ध-जनित बड़े मुनाफों के कारण पतित हो गई है। युद्ध के कारण हर जगह बन्धन ढीले पड़ गए। इस कारण ज़रूरत से अधिक उत्साह से आजादी की एक विचित्र सी कल्पना व्याप्त हो गई है। वास्तव में यह आजादी नहीं, बल्कि उच्छृङखलता है । हमारी उदार अन्तर्भावनाओं में से जिम्मेदारी का वह गुण निकल गया है, जिसके बिना हमारे विचारों और कामों में न कोई व्यवस्था रह सकती है न कोई ढंग ही। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में भी आजकल जिस तरह एकमात्र शक्ति-नीति और आपसी संदेह का प्रभुत्व है, वह लड़ाई से पहले नहीं था। हमारे अपने घर में भी ज़रा छोटे क्षेत्र में, वही दुखदायक बातें नजर आती हैं। उनके अतिरिक्त हमारी अपनी निजी समस्याएँ भी हैं। राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से हम इस समय एक गड़े के किनारे खड़े हैं। एक भी गलत कदम उठाया कि तबाही अवश्यम्भावी है। हमारे रहने का खर्च असाधारण रूप से बढ़ गया है। हम जो पैदा करते हैं, वह उतना नहीं होता, जितनी की हमें जरूरत है। जरूरी चीज़ों को बाहर से मँगाना हमको बहुत महंगा पड़ रहा है । इतना खर्च सहने की हममें शक्ति नहीं है । जो कुछ हमारे पास है, वह भी आसानी से और न्यायोचित हिस्से से सवको नहीं मिलता। हमारे कारबार पर और हमारे माली ढाँचे पर एक पक्षाघात सा गिर गया है। हमारे हाथ में सत्ता आने के साथ ही देश का बंटवारा हो जाने के कारण भी देश में अनेक कठिनाइयों और पेचीदा समस्याएँ खड़ी हो गई हैं। शासन को चलाने के प्रधान