पृष्ठ:भारत की एकता का निर्माण.pdf/१७६

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- चौपाटी, बम्बई १५४ और हिन्दुस्तान को छिन्न-भिन्न करना ही उनकी नीयत थी। पहले तो कहते थे कि हमारा तो कोई इन्ट्रेस्ट ( हित ) है ही नहीं, हम कुछ नहीं जानते। किन्तु जब आहिस्ता-आहिस्ता सब भेद खुल गया, तो उससे मालूम पड़ा कि हैदराबाद का प्राइम मिनिस्टर ही एक प्रकार से पाकिस्तान का प्रतिनिधि था । हैदराबाद ने जब हमारे साथ समझौता किया, तो वह ऐसा था कि जैसा हमने किसी और राजा के साथ नहीं किया था। उसमें हमने बहुत उदारता दिखाई थी। उधर उनका पाकिस्तान को २२ करोड़ रुपया देने का मशवरा भी जारी था। इस तरह हमारे साथ धोखेबाजी की। तो भी जब तक लार्ड माउंट- बैटन यहाँ थे, हमने हैदराबाद का मामला उनकी मर्जी पर छोड़ा था। क्योंकि ब्रिटिश गवर्नमेंट की नीति ऐसी थी कि शुरू से हैदराबाद के साथ अलग बर्ताव किया गया था। तो जहाँ तक हो सका, हमने भी उदारता का व्यब- हार करने की कोशिश की। लेकिन गवर्नर जनरल के जाने के आखिरी दिन तक उम्मीद थी कि वह इंग्लैण्ड जाने से पहले खुद हैदराबाद जाकर निजाम से काग- जात पर दस्तखत करवा लाएँगे । वह नहीं हुआ और इसका उसे बहुत दुख था। गवर्नर जनरल के जाने के बाद इस चीज़ का फैसला हमें तो करना ही था। किन्तु जब हम फैसला करने की सोच रहे थे, तब वह पाकिस्तान सरकार की मदद से और इंग्लैण्ड में उनके जो साथी और साथ देनेवाली शक्तियाँ थीं, उनकी मदद से, यूनाइटेड नेशन्स आर्गेनाईजेशन की सिक्योरिटी कौंसिल में जाने का छिपा बन्दोबस्त कर रहा था। इस बीच गोआ पोर्ट खरीदने की भी उसने कोशिश की। बाहर के मुल्कों से आर्स और एम्यूनीशन ( हथियार और गोला- बारूद ) लाकर भरने की कोशिश भी की गई। किसी तरह की कोर-कसर नहीं रखी गई। इस सब का कौन जिम्मेवार है, उसका फैसला आज नहीं होगा। खुद निज़ाम साहब कहते हैं कि उनको तो एक कैदी बना कर इन लोगों ने यह सब काम किया। इन बन्दी बनाने वाले में उनके प्रीमियर आदि भी थे। अब खुद ही यह भी कहते हैं कि उन्हें यू० एन० ओ० में नहीं जाना है, और जो प्रतिनिधि उनकी तरफ से सिक्योरिटी कौंसिल में गए हैं, उनको वापस लौट आना चाहिए। इन प्रतिनिधियों को जो रुपया दिया गया था, उसमें से जो खर्च होने से बाकी बच रहा, वह पाकिस्तान के हाई कमिश्नर के नाम कर दिया गया। अपना कुटुम्ब तो उस प्रतिनिधि ने पहले ही पाकिस्तान भेज दिया था। इस प्रकार की नियत से तो वहाँ काम चल रहा है। उस पर तुर्रा यह