पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/४०६

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परिशिष्ट श्रा] हरिश्चन्द्र पेश किए जा सकते हैं, जो अधिकतर भारतेंदु के नाम से पुकारे जाते हैं। इन्होंने बनारस के क्वीन्स कालेज में शिक्षा प्राप्त की थी और कई शैलियों में सफलतापूर्वक बहुत सी कविता लिखी है। इन्होंने सोलह वर्ष की अवस्था से लिखना आरंभ किया था और कुल मिला कर एक सौ पचहत्तर पुस्तकें तैयार की, थीं। इनमें अठारह नाटक भी सम्मिलित हैं और हरिश्चन्द्र ही वास्तव में भारत के वर्तमान नाटक के संस्थापक थे । इन नाटकों में इनकी कुछ सर्वोत्तम रचनाएँ भी हैं और इनसे इनकी भारत की उन्नति तथा उसके दिमागी स्वातंत्र्य के उत्कर्ष की उत्कट इच्छा प्रकट हो रही है। हरिश्चन्द्र ने भिन्न भिन्न कई विषयों पर लिखा है, जिनमें इतिहास, राजभक्ति, धार्मिकता तथा प्रेम प्रधान हैं। परिहासमय कविताएँ भी इन्होंने लिखी हैं । ऐतिहासिक रचनाओं में काश्मीर और चरितावली हैं। दूसरे में भारतीय तथा यूरोपीय महान व्यक्तियों की जीवनियाँ दी हुई हैं। नाटकों के बाद इनकी शृंगारिक कविताएँ बहुत उत्तम समझो जाती हैं । इनकी कविता में प्रेम तथा परिहास मुख्य हैं और जो सबलता से परिप्लुत हैं। हिन्दी साहित्य के बड़े बड़े लेखकों में इनकी गणना होनी चाहिए। इनकी काव्य भाषा ब्रज-भाषा थी। हरिश्चन्द्र ने हिंदी कविता के प्रति लोगों में प्रेम उत्पन्न करने में बहुत प्रयास किया था। इस कार्य के लिए इन्होंने एक मासिक पत्रिका हरिश्चन्द्रचंद्रिका प्रका- शित किया जिसमें बहुत से प्राचीन ग्रंथ भी निकले थे इंडियन मैगज़ीन (जनवरी सन् १८८८ ई०) 'हरिश्चन्द्र से बढ़ कर अंग्रेजी राज्य का कोई दूसरा पच्चा २६