पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/४००

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३६४ - 1 [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र शिक्षाविभाग हुए हो, अथवा सर्कारी कचहरियों में उर्दू के स्थान पर हिन्दी के प्रचार के अर्थ बहुत उद्योग करके भी हताश हो, कदाचित् उन्होंने यह सिद्धान्त कर लिया था कि, अव हिन्दी को ही उर्दू बना चलो । क्योंकि राजभाषा से प्रजा को परिचित कराना अति ही आवश्यक है । जो हो, उन्होंने पाठ्य पुस्तकों में अपनी भाषा की शैली बदल दी। तृतीयभाग इतिहास तिमिर- नाशक के अन्त की भाषा खरी, बरञ्च उच्च कोटि की नई कही जा सकती है, जिसे कम लियाकत के मुदरिंस तो प्रायः समझ भी नहीं सकते, पढ़ाते क्या ? वैसा ही उन्होंने अपनी भाषा के लिए एक व्याकरण भी बनाया. जिसमें फारसी और अरबी के नियम और गर्दान लिखकर अवश्य ही हमारी भाषा में एक अच्छी वस्तु छोड़ गए, पर उस काम के लिए उपयुक्त नहीं, जिसके लिए उनका श्रम था। यह तो अनहोनी बात थी कि 'दूसरे वर्णो द्वारा दूसरी दूसरी भाषाओं का सम्यक ज्ञान हो सके। कविव- चनसुषा में बहुत दिनों तक उसकी समालोचना हुई थी। फजी- हत राय के नाम से बाबू हरिश्चन्द्र लिखते थे। उस लेखमाला का एक शीर्षक ही था कि-"मला यह व्याकरण पढ़ावेगा कौन ?" हमारी गवर्नमेन्ट यह चाहती है कि एक ही भाषा दो भिन्न भिन्न अक्षरों में लिखी जाय, परन्तु यह कत्र सम्भव है। परि- णाम यह होता है कि हिन्दी उर्दू बनती जाती है। क्योंकि फारम्री अक्षरों में हिन्दी के शब्द तो पढ़े ही नहीं जाते, इसो से हिन्दी का गला घोंटा जाता है। निदान जब तक सर्कार इस भूल को न सुधारेगी. प्रजा की दशा न सुधरेगी और न हमारी भाषा का उद्धार होगा। बाबू हरिश्चन्द्र प्रारम्भ में उन्हीं के अनुकरणकर्ता हुए । वे राजा साहिब को अपना गुरु मानते थे। कुछ दिनों दोनों को