पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३८३

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३७७ भारतेन्दु जी का विरह-वर्णन ] किसी भी प्रकार का लाभ न होगा। ऐसी ही एक विरहिणी ने प्राण को त्याग दिया पर प्राण ही बेचारा उस महागुण रूपगशि की शरीर को न छोड़ सका। इस प्रकार यह पद करुण-विप्रलंभ शृङ्गार रसपूर्ण हो गया है। संबाद-दाता कहता है- हे हरि जू बिछुरे तुम्हरे नहिं धारि सकौ सो काऊ विधि धीरहिं । अाखिर प्रान तजे दख सो न सम्हारि सकी वा वियोग की पीरहि ॥ पै 'हरिचन्द' महा कलकानि कहानी सुनाऊँ कहा बलबीरहिं । जानि महा गुनरूर को रासि न प्रान. तज्यो चहै बाके मरीरहि।। संयोग शृङ्गार किसी कवि की उक्ति है कि- न बिना विप्रलंभेन संभोग: घुष्टिमश्नुते। कषायितेहि वस्त्रादौ भूयान्रागो विवर्धते ॥ संभोग शृङ्गार की रस-पुष्टि बिना वियोग के नहीं होती, जैसे रंग अच्छी प्रकार चढ़ने के लिये पहिले कपड़े पर कषाय रंग दिया जाता है । 'जो मजा हिब्रे यार में होता है, वह संयोग में नहीं होता । वास्तव में दोनों ही का सम्बन्ध पारस्परिक है। 'मीठो भाव लोन पर अरु मीठे पर लोन' कहा ही गया है। जब तक जोब वियोग में कष्ट नहीं उठा लेता तब तक उसे संयोग का आनंद नहीं मिलता। इसीलिए विप्रलंभ का वर्णन कर लेने पर संयोग शृङ्गार पर भी थोड़ा सा कुछ लिखा जाता है। संयोग शृङ्गार का आरम्भ पूर्वानुराग में होता है पर इसमें वियोग ही का अंश अधिक होता है। केवल दूर से देख लेना, गुण सुनना, अवसर निकालकर क्षण मात्र एक दूसरे को देख मुस्कुराकर प्रेम प्रकट हरना, चवाइनों (चुगुलखोरों) को फटकार पादि संयोग के अंतर्गत हैं। देखिए, एक दिन एकाएक पहिली बार दोनों की आँखें चार हो रही हैं-