पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३७५

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भारतेन्दु जी का विरह वर्णन ] ३६६ उसका जो कारण बतलाया गया है, वह असत्य है। इस प्रकार के वर्णन में सत्य आधारों का विरह के कारण वैसा होना दिख. लाने के लिये ऐसे हेतु का आरोपण किया जाता है जिससे वैसा होना संभव है। सर्प के दंशन से विष फैलने पर मनुष्य नीला हो जाता है, इसलिये आह रूपी सर्प के दंशन से प्राकाश का नीला होना कहना उचित हुअा कराना की उड़ान इससे भी ऊँची उड़ी है पर इस प्रकार का अत्युक्तियों में तब भी कुछ गांभीर्य है, कोरा मजाक नहीं। विप्रलंभ शृंगार के चार भेद होते हैं, पूर्वानुराग, मान, प्रवास और करुण । केवल दर्शन, गुण श्रवण श्रादि से प्रेम के अंकुरित होजाने पर मिलन तक का विरह पूर्वानुराग के अंतर्गत है ! प्रेमियों के एक दूसरे से कारणवश रुष्ट होने पर उत्पन्न वियोग मान कहलायगा। जब दो में से एक कहीं विदेश चले जाँय तब प्रवास विप्रलंभ होता है। प्राचीन श्राचार्यो ने, प्रेमियों में कितना अन्तर पड़ने पर ऐसे वियोग को प्रवास विप्रलंभ कहना चाहिए, इस पर विचार नहीं किया है । पर एक आधुनिक प्राचार्य एक स्थान पर लिखते हैं कि 'वन में सीता का वियोग चारपाई पर करवटें बदलवाने वाला प्रेम नहीं है-चार कदम पर मथुरा गए हुए गोपाल के लिये गोपियों को बैठे बैठे रुजाने वाला वियोग नहीं है, माड़ियों में थोड़ी देर के लिये छिपे हुए कृष्ण के निमित्त राधा की आँखों से आँसुओं को नदी बहाने वाला वियोग नहीं है । यह राम को निर्जन बनों और पहाड़ों में घुमाने वाला, सेना एकत्र कराने वाला, पृथ्वी का भार उतरवाने वाला वियोग है। इस वियोग को गंभीरता के सामने सूरदास द्वारा अंकित वियोग अतिशयोक्ति-पूर्ण होने पर भी बालक्रीड़ा सा लगता है।' इस उद्धरण में पहिले यही नहीं पता लगता कि रामचन्द्र से २४ १