पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३७२

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[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तुम्हारी ही हैं, इससे इन पर तो जरा दया करो। आँसुओं की झड़ी के मारे ये बेचारी और भी कष्ट में हैं, कहीं तुम आगए तो भी ये न देख सकेंगी और पुछ जाने पर ही रूपसुधा पा सकेंगी। यदि इतने पर भी प्रियतम कष्ट न करे तो क्या कहा जा सकता है- रोवें सदा नित की दुखिया अनि ये अँखियाँ जिहि द्यौस सो लागीं। रूप दिखाश्रो इन्हें कब हूँ 'हरिचन्द जू' जानि महा अनुरागीं ॥ मानिहैं औरन सों नहिये तुव रंग रँगी कुल लाजहि त्यागी। अाँसुन को अपने अँचरान सों लालन पोंछि करौ बर भागी॥ भारतेन्दु जी का विरह-वर्णन भारतेन्दु जी का विरह वर्णन पुरानी रूढ़ि के कवियों के वर्णन से कुछ भिन्न है। इनमें अतिशयोक्ति की कमी और स्वाभा. विकता की पूर्णता है । यद्यपि पुराने कवियों ने कल्पना प्रों की खूब उड़ान मारी है, बड़े बड़े बाँधनू बाँधे हैं, पर सभी में अनै- सर्गिकता पद पद पर साथ चली आई है। हिन्दी तथा उर्दू दोनों ही के कवियों ने विरह के ऐसे ऐसे चित्र खींचे हैं जिन्हें जयपुर के चित्रकारों की बारीक से बारीक कलम की नजाकत भी नहीं दिखला सकती । उर्दू के दो उस्तादों की उस्तादी की बातें सुनिए और आँखें मूंद कर ध्यान कीजिए, कुछ समझ में आता है । इन्तहाए लागरी से जब नजर आया न मैं हँस के वह कहने लगे बिस्तर को माड़ा चाहिए । नातवानी ने बचाई जान मेरी हिज्र में । कोने कोने हूँढ़ती फिरती कजा थी मैं न था ।। पहिले साहब चुचुक कर ऐसे अमहर हो गये थे कि नहीं से हो रहे थे और उन्हें न देख कर माशूक हँस पड़ा, देखते तो शायद रो पड़ते पर जब वह दिखलाई हो न पड़े तब सिवा हँसने के "