पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३६९

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नेत्र] इसी लिए कवि कहता है-'आँखें तरस रही हैं सूरत इन्हें दिखा जा ।' पर क्या एक वार दर्शन देकर चले जाने से इन नेत्रों की तृप्ति होगी। नहीं, नहीं, दिखलाते जाइए अर्थात् दिखला कर चले न जाइये प्रत्युत् बराबर इनके आगे मूर्तिवत् वैठे रहिए । इन्हीं सब कारणों से अपनी ही आँखों पर उनकी करतूत देखकर आप ही अमर्ष होता है, उनपर कैसी फटकार पड़ती है। प्रश्न पर प्रश्न होते हैं और अन्त में उनसे स्पष्ट कह दिया जात है कि जैसी करनी वैसी भरनी। धाइकै आगे मिली पहिले तुम कौन सों पूछि कै सो मोहि भाखौ । त्यों सब लाज तजी छिन मैं केहि के कहे एतौ कियो अभिलाखौ ।। काज बिगारि सबै अपनो 'हरिचंद जू धीरज क्यों नहिं राखौ । क्यों अब रोह के प्रान तजौ अपने किए को फल क्यों नहिं चाखौ ।। यह सब डाँट फटकार बतलाने पर भी तुरन्त ही कवि की उनपर सहानुभूति भी पैदा हो जाता है। 'बरियाई लखौ इनकी उलटी अव रोवहिं आपु निहारे बिना' । इसी एकनिष्ठा के कारण समवेदना भी कैसी है और क्यों न हो। देखिए, ये आँखें उर्दू शायरी की बेवफ़ाई छोड़ कर यहीं 'लहद' तक ही देखने को नहीं तरखती बल्कि जन्मजन्मांतर में जिस जिस लोक मे वे जाएँगी वहाँ वहाँ उन्हें इस अदर्शन की याद बनी रहेगी। इन दुखियान को न सुख सपने हू मिल्यो , यों ही सडा व्याकुज बिकल अकुलायँगो। प्यारे 'हरिचन्द जू' को बीती जानि औध जौ पैं, जैहैं प्रान तऊ ये तो साथ न समायँगी ॥ देख्यो एक बार हू न नैन भरि तोहि याते , जौन जौन लोक जैहैं तही पछितायेंगी।