पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३६६

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3 पारसी] ३५६ हौं तो याही सोच में विचारत रही री काहे , दरपन हाथ तें न छिन बिसात है। त्योंही 'हरिचन्द जु' बियोग ौ सयोग दोऊ , एक से तिहारे कछु लखि न परत है। जानी आज हम ठकुरानी तेरी बान तू तौ परम पुनीत प्रेम पथ विचरत है। तेरे नैन मूरति पियारे की बसत ताहि , पारसी में रैन-दिन देखिनो करत है॥ सखी के ये अहात्मक विचार कितने ऊँचे तथा पवित्र प्रेम के हैं। आरसी हाथ से नहीं छूटती, सो ठोक है पर प्रेमिका का वियोग तथा संयोग दोनों ही में एक सी दशा देखकर बह चकित है। एकान्त में वियोग से वह विरहिणो चाहे कितना भी विलाप करे पर वह संसार के सामने अपने प्रेम के कारण प्रिय के प्रति लोगों की सहानुभूति नहीं कम कराना चाहती, इसी से सखी कहती है कि ऐसे श्रेष्ठ पवित्रतम प्रेममार्ग पर विचरण करने वाली केवल तू ही है। आरसी में दिन रात देखने का भी वह एक कारण यह बतलाती है कि प्रिय को मूर्ति तुम्हारे नेत्रों में बसी हुई है और तू उसी प्रेममूर्ति का रात दिन दर्पण ही में दर्शन किया करती है । इस जहा पर प्रेमिका जो उत्तर देती है वह प्रत्येक सच्चे प्रेमी के लिए आदर्श है । वह कहती है कि नहीं सखी ! ऐसा नहीं है। मैं जो आरसी देखती थी उसका कारण कुछ दूसरा ही है। हा! ( लम्बी साँस लेकर ) सखी ! मैं जब आरसी में अपना मुँह देखतो और अपना रंग पीला पाती थी, तब भगवान से हाथ जोड़कर मनाती थी कि भगवान् निर्दयी को चाहूँ पर वह मुझे न चाहे, हा !' ( आँसू टपकते हैं ) कैसा दैवी प्रेम है । विरह कष्ट को प्रेमिका नहीं चाहती कि मैं