पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३२९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 अनुवाद] ३२३ सेस-सीस-मनि-चमक चौधन तनिकहुँ नहिं सकुचाहीं। नींद भरे भम जगे चुभत जे नित कमला-उर माहीं॥ हरौ हरि-नैन तुम्हारी बाधा । 'पाखंड विडंबन' तथा 'धनंजय बिजय' दोनों हो संस्कृत से अनूदित हैं। इन दोनों के एक एक पद नीचे दे दिए जाते हैं। १-श्री रघुनाथ की प्राण-प्रिया मिथलेश-लली दसतीस चही है। वेद चुराय कै दानव के गन भागे पताल न जाय कही है। वाम मदालसा जो सुरलोक की सो छलिकै खज्ञ दै। लही है । जो विधि बाम भयो सजनी तब जो जो करै सो अचर्ज नहीं है। २- सागर परम गंभीर नध्यो, गोपद सम बिन मैं सीता-विरह-मिटावन की अद्भुत मति जिन मैं ॥ जारी जिन सृन फूस हूससी लंका सारी । रावन' गरब मिटाह हने निसिचर-बल भारी॥ श्री राम-मान-सम, बीर-चर, भक्तराज, सुग्रीव-प्रिय सोडवायुतनय धुज बैठि कै गरजिडरावत शत्रु -हिय ॥ 'कर्पूर मंजरी' सहक शुद्ध प्राकृत भाषा में राजशेखर द्वारा निर्मित हुआ था। उसके अनुवाद से भी दो एक पद यहाँ उद्धृत किर जाते हैं- १-फूलैंगे पलास बन मागि सी लगाइ कूर , कोकिल कुहूकि कल सबद सुनावैगो । त्यों ही सखी लोक सबै गावैगो धमार धीर , अधीर बीर सब ही उड़ावैगो॥ सावधान होहु रे बियोगिनी सम्हारि तन , अतन तनक ही मैं तापन ते तावैगो। हरन