पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३१९

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भाषा- -सौन्दर्य] ३१३ बहुत ही मनोरंजक रूप में वर्णन होता था। उर्दू काव्य ग्रन्थों का भी भारतेन्दु जी ने मनन किया था और उर्दू में कविता भी करते थे। यही कारण है कि उस भाषा की जिंदादिली इनकी भाषा में अधिक व्याप्त हो गई है। इस प्रकार से जब सजीव भाषा की सुष्ठु-योजना की जाती है तब कविता में जान पड़ती है और कवि तथा पाठक दोनों ही उस पर मुग्ध हो जाते हैं। भाषा पर भारतेन्दु जी का अधिकार भी खूब बढ़ा चढ़ा हुआ था। इनकी प्रायः सभी कविता ब्रजभाषा में है। इनकी भाषा में मुहाविरों का बहुत प्रयोग है। लोकोक्तियों तथा व्यंग्योक्तियों को भी इन्होंने सुचारू रूप से प्रयुक्त किया है । 'निरंकुशाः कवयः' होते हैं पर इन्होंने अपनी भाषा को कहीं नियम-विरुद्ध तथा शिथिल नहीं होने दिया । भर्ती के शब्द कविता में नहीं लाये हैं। भाषा को सुव्यवस्थित करने का तो इन्होंने बीड़ा ही उठाया था, तब वे अपनी भाषा को कैसे अव्यवस्थित होने देते । अब कुछ अवतरण देकर पूर्वोक्त बातों का विचार किया जाय । १. सोई तिया अरसाय के सेज पै सो छबि लाल बिचारत ही रहे । पोंछि रुमालन सों श्रम सीकर भौंरन को निस्वारत ही रहे। त्यों छबि देखिबे को मुख ते अलकै 'हरिचंद ज' टोरत ही रहे। द्वैक घरी लौं जके से खरे वृषभानु-कुमारी निहारत ही रहे । कैसा सुन्दर चित्र इन मनोहर शब्दों से चित्रित किया गया है। सोई हुई बृषभानुनंदिनी की छबि को किस प्रकार श्रीकृष्ण जी जके हुए खड़े देख रहे हैं, इस भाव को ऐसी सरलता से कह दिया गया है कि सुनने या पढ़ने वाले के हृदय में वह आप ही खचित हो जाता है । भाव के अनुकूल ही शब्द इस प्रकार आप से आप बिना लेश मात्र प्रयास के चले आए हैं कि प्रवाह में कहीं भी कुछ