पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३१७

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भाषा सौन्दर्य] समय तक के कविगण प्राचीन परंपरागत काव्य की जिस ब्रजभाषा को अपनाते चले आते थे, उसके बहुतेरे शब्दों को बोलचाल से उठे हुए शताब्दियों व्यतीत हो गए थे, पर वे उनके द्वारा व्यवहृत हो रहे थे। इसके सिवा अपभ्रश-काल तक के कितने शब्द, जो किसी के द्वारा कहीं बोलचाल में प्रयुक्त नहीं होते थे वे भी बराबर कविता में लाए जा रहे थे। भारतेन्दु जी ने ऐसे पड़े सड़े शब्दों को बिलकुल निकाल बाहर किया और इस प्रकार काव्यभाषा को परिमार्जित कर उसे चलता हुआ सरल और साफ रूप दिया। इस परिष्करण से जन- साधारण की बोलचाल की भाषा से काव्य की जो ब्रजभाषा दूर पड़ गई थी और जिसे समझना भी सुगम नहीं रह गया था, वह फिर अपने सीधे मार्ग पर आ गई। जो लोग ब्रजभाषा की दुरूहता से उससे दूर हटे जा रहे थे वे फिर उसे अपनाने लगे। इसके साथ अन्य रसों में कम और वीर तथा रौद्र रसों में अधिक शब्दों की जो पिच्चीकारी की जाती थी, तोड़ मरोड़ होते थे और अंग भंग किए जाते थे तथा मनगढंत शब्दों का प्रयोग हो रहा था उस दोष को भी भारतेन्दु जी ने अपनी कविता में नहीं आने दिया और उससे अपनी भाषा को बचाए रखा। इस प्रकार इन्हों ने अपनी भाषा को जो सुव्यवस्थित शिष्ट निखरा रूप दिया, उससे बाद के सभी सुकवियों ने लाभ उठाया है। भार- तेन्दु जी के सवैयों तथा कवित्तों के सर्वप्रिय होने और उन्हीं के सामने ही उन सबके अत्यधिक प्रचलित हो जाने का एक प्रधान कारण भाषा का यह परिष्कार था। कवि के हृदय से उठते हुए भाव को पूर्णरूप से व्यक्त कर देना जैसे भाषा का एक मुख्य गुण है, उसी प्रकार उसका दूसरा मुख्य गुण यह भी होना चाहिए कि वह उस भाव को ठीक ठीक