पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३०७

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खड़ी बोली तथा उर्दू कविता ) ३०१ ज्ञानपंथियों या साहिबपंथियों के ज्ञान छाँटने की शैली पर भी कुछ पद कहे हैं पर सबके अन्त में वही 'हरीचंद हरि सच्चा साहब उसको बिलकुख भूला है' बतलाते हुए कृष्ण-भक्ति की पूर्णता दिख- लाई है। इरि-माया भठियारी ने क्या अजब सराय बसाई है। जिसमें आकर बसते ही सब जग की मत बौराई है ॥ होके मुसाफिर सबने जिसमें घर सी नत्र जमाई है। भाँग पड़ी कुए में जिसने पिया बना सौदाई है ॥ सौदा बना भूर का लड्डू देखत मति ललचाई है खाया जिसने वह पछताया यह मी अजब मिठाई है ॥ एक एक कर छोड़ रहे हैं नित नित खेप लदाई है। जो बचते सो यही सोचते उनकी सदा रहाई है अजब भँवर है जिसमें पड़ कर सब दुनिया चकराई है। 'हरीचन्द' भगवन्त भजन बिनु इससे नहीं रिहाई है। डंका कूच का बज रहा मुमाफ़िर जागो रे भाई। देखो लाद चले सब पंथी तुम क्यों रहे भुलाई ॥ जब चलना ही निहचै है तो ले किन माल लदाई। 'हरीचन्द' हरिपद बिनु नांही रहि जैहो मुंह बाई ॥ खड़ो बोली तथा उर्दू कविता इन दोनों भाषाओं की कविता की एक साथ आलोचना करने का यही कारण है कि इन दोनों का संबंध बहुत ही घनिष्ठ है। एक पक्ष वाले खड़ी बोली को उर्दू का उद्गम कहते हैं तो दूसरा पक्ष उदू से खड़ी बोली का निकलना बतला रहा है। इस पर तर्क वितर्क करने का न यह उपयुक्त स्थान है और न अवकाश ही है। इतना अवश्य कहना उचित है कि मुसलमान नवागंतुकों