पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३०२

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। २६६ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ऐसा मूर्ख है जो ज्ञानरूपी विष को लेगा । गोपियाँ कहती हैं- हरि सँग भोग कियो जा तन सों तासों कैसे जोग करें। जो सरीर हरि संग लपटानो वापैं कैसे भसम धरै।। जिन श्रवनन हरि बचन सन्यौ ते मुद्रा कैसे पहिरैं। जिन बेनिन हरि निज कर गूंथी जटा होइ ते क्यों बिखरें ।। जिन अधरन हरि अमृत पियो अब ते ज्ञानहिं कैसे उचरैं। जिन नैनन हरि रूप बिलोक्यौ तिन्हें मदि क्यों पलक परें । जा हिय सो हरि हियो मिल्यौ है तहाँ ध्यान केहि भाँति धरैं। 'हरीचन्द' जा सेज रमे हरि तहाँ बघम्बरं क्यों बितरें ।। बतलाइए जिन जिन अंगों ने ऐसे ऐसे सुख लूटे हैं, उनसे अब दुख सहन हो सकता है। कितना स्वाभाविक कथन है । ज्ञान की केवल दुहाई देने से क्या उनका स्मृतिपट सूना हो सकता है ? कभी नहीं । उस पर भी यदि दो चार मन, हृदय होते तो वहभी संभव था। तपस्वियों की तरह एक से योग और एक से भोग करते, पर वह भी तो नहीं है- ऊधौ जौ अनेक मन होते। तौ इक श्यामसुन्दर को देते इकलै जोग सँजोते ॥ एक सों सब गृह कारज करते एक सों धरते ध्यान । एक सौ श्याम रंग रंगते तजि लोकलाज कुल कान ।। को जप करै जोग को साधै को पुनि मूंदे नैन। हिये एकरस श्याम मनोहर मोहन कोटिक मैन ह्याँतो हुतो एक ही मन सो हरि लै गए चुराह । 'हरीचन्द' कोऊ और खोजि कै जोग सिखावहु जाई ॥ कई मन को कौन कहे, केवल एक था वह भी चोर ले गया और उस चितचोर ने अब तुम्हें सिखलाने को भेना है । वाह, सीखने वाला मनरूपी शिष्य यहाँ है नहीं, और आप शिक्षक हो